हिन्दू धर्म में मृत्यु और उसके उपरान्त के संस्कार: एक विस्तृत विवेचन
हिन्दू धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से एक है, जो जीवन और मृत्यु को एक सतत चक्र (संस्कार) का अभिन्न अंग मानता है। इसमें मृत्यु को अंत नहीं, बल्कि आत्मा (आत्मान) का एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन माना जाता है, जिसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष यानी जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाना है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में मृत्यु उपरान्त किए जाने वाले संस्कार अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं, जिनका उद्देश्य दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करना और उसकी आगे की यात्रा को सुगम बनाना है।
मुख्यतः, इन संस्कारों का आधार गरुड़ पुराण जैसे धर्मग्रंथ हैं, जो मृत्यु, आत्मा की यात्रा, और विभिन्न अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन करते हैं।

1. मृत्यु का महत्व और आत्मा की अवधारणा
हिन्दू दर्शन के अनुसार, शरीर नश्वर है, आत्मा अमर है। भगवद गीता (अध्याय 2, श्लोक 22) में भगवान कृष्ण कहते हैं: “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।” अर्थात, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है।
मृत्यु के समय, आत्मा शरीर को छोड़ देती है, और यह यात्रा कर्मों के अनुसार होती है। गरुड़ पुराण के अनुसार, मृत्यु के बाद आत्मा को यमलोक की यात्रा करनी होती है, और इस यात्रा को सुगम बनाने के लिए परिजनों द्वारा कर्मकांड किए जाते हैं।
2. मृत्यु के तत्काल बाद के संस्कार (अन्त्येष्टि संस्कार)
जैसे ही किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, कुछ तत्काल अनुष्ठान किए जाते हैं:
- मृत्यु के लक्षण और गंगाजल: जब मृत्यु सन्निकट होती है, तो अक्सर मरने वाले व्यक्ति के मुख में गंगाजल डाला जाता है। यह आत्मा को शुद्ध करने और पापों को दूर करने के लिए माना जाता है, जिससे परलोक की यात्रा सुगम हो।
- शरीर की शुद्धि और सज्जा: मृत्यु के बाद, शरीर को स्नान कराया जाता है और स्वच्छ, अक्सर सफेद वस्त्र पहनाए जाते हैं। विवाहित महिला की मृत्यु होने पर उसे लाल वस्त्र पहनाए जा सकते हैं। तुलसी के पत्ते और फूल (विशेषकर गेंदा) शरीर पर रखे जाते हैं। शरीर के नौ द्वारों पर सोने के टुकड़े रखने की भी परंपरा कुछ स्थानों पर है, जो शुद्धिकरण का प्रतीक है।
- मुख की दिशा: शरीर को ज़मीन पर रखा जाता है, और कई स्थानों पर मुख दक्षिण दिशा की ओर किया जाता है, क्योंकि यह यमराज की दिशा मानी जाती है।
- शालिग्राम और तुलसी: शरीर के पास शालिग्राम शिला और तुलसी के पत्ते रखे जाते हैं, जो पवित्रता और मोक्ष से जुड़े हैं।
- अर्थी तैयार करना और श्मशान यात्रा: शरीर को बांस की अर्थी पर रखा जाता है और पुरुष सदस्य कंधे पर उठाकर श्मशान घाट ले जाते हैं। सबसे बड़ा पुत्र या मुख्य पुरुष सदस्य श्मशान यात्रा का नेतृत्व करता है। यात्रा के दौरान “राम नाम सत्य है” का उच्चारण किया जाता है।
3. दाह संस्कार (मुखअग्नि/अग्निदाह)
हिन्दू धर्म में, अधिकांशतः दाह संस्कार (cremation) को प्राथमिकता दी जाती है। यह माना जाता है कि अग्नि तत्व शरीर को उसके मूल तत्वों में विलीन कर देता है और आत्मा को भौतिक बंधनों से मुक्त कर देता है, जिससे वह अपनी आगे की यात्रा पर निकल सके।
- चिता की स्थापना: शरीर को चिता पर रखा जाता है, सिर उत्तर दिशा की ओर होता है।
- मुखअग्नि: चिता को मुखअग्नि सबसे बड़े पुत्र या मुख्य पुरुष सदस्य द्वारा दी जाती है। यह माना जाता है कि यह क्रिया आत्मा को शरीर से पूर्णतः मुक्त करती है। इस समय, घी (घी), शहद, दूध, और दही से शरीर को स्नान भी कराया जाता है।
- प्रार्थना और मंत्र: दाह संस्कार के दौरान, पुजारी वेदों और अन्य धर्मग्रंथों से मंत्रों का जाप करते हैं, जैसे कि भगवद गीता के श्लोक, जो आत्मा की अमरता और जीवन के क्षणभंगुरता पर प्रकाश डालते हैं।
- अखंड दीपक: घर में, मृतक की तस्वीर के सामने एक अखंड दीपक जलाया जाता है, जिसे 12 या 13 दिनों तक लगातार जलते रहने दिया जाता है। यह आत्मा की उपस्थिति और मार्ग प्रकाश का प्रतीक है।
उदाहरण: जब किसी परिवार में कोई वृद्ध व्यक्ति (दादी/दादा) का निधन होता है, तो पूरा परिवार एकत्रित होता है। शरीर को स्नान कराकर नए सफेद वस्त्र पहनाए जाते हैं, उस पर तुलसी के पत्ते और फूल रखे जाते हैं। बड़ा बेटा या पोता मुखअग्नि देता है, और सभी पुरुष सदस्य तब तक वहीं रहते हैं जब तक शरीर पूरी तरह भस्म न हो जाए।

4. शोक काल और अनुष्ठान (10-13 दिन)
दाह संस्कार के बाद, लगभग 10 से 13 दिनों का शोक काल होता है, जिसे आशौच काल या मृतकासुत कहा जाता है। इस अवधि में परिवार के सदस्य कई नियमों का पालन करते हैं:
- शुद्धता का पालन: परिवार अशुद्ध माना जाता है और उन्हें शुभ कार्यों में भाग लेने की अनुमति नहीं होती है। वे सादे वस्त्र पहनते हैं, तामसिक भोजन (प्याज, लहसुन आदि) का सेवन नहीं करते, और कई बार ज़मीन पर सोते हैं।
- तारपन और पिंडदान: इन दिनों में, विशेष रूप से पुरुष सदस्यों द्वारा प्रतिदिन तारपन (पानी और तिल का अर्पण) और पिंडदान (चावल के आटे या जौ के आटे से बने पिंडों का अर्पण) किया जाता है।
- उद्देश्य: पिंड आत्मा को अपनी नई सूक्ष्म देह प्राप्त करने में सहायता करते हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, पहले दिन दिया गया पिंड सिर बनाता है, दूसरे दिन कान, आंखें और नाक, तीसरे दिन गर्दन, कंधे, हाथ और छाती, चौथे दिन नाभि और जननांग, पांचवें दिन जांघें, पिंडली, पैर और तलवे, और छठे दिन महत्वपूर्ण अंग (हृदय, यकृत, गुर्दे, आदि) बनते हैं। दसवें दिन तक, आत्मा को अपनी सूक्ष्म देह प्राप्त हो जाती है और उसे भूख लगने लगती है।
- उदाहरण: 10वें दिन, दशगात्र या दशा नामक एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान होता है, जिसमें पिंड दान विशेष रूप से किया जाता है। यह अक्सर किसी नदी के किनारे या पवित्र स्थान पर किया जाता है। इस दिन परिवार के पुरुष सदस्य सिर मुंडवाते हैं, जो शोक और शुद्धिकरण का प्रतीक है।
- गरुड़ पुराण का पाठ: कई घरों में इन 13 दिनों के दौरान गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसे सुनने से दिवंगत आत्मा को अपने आगे की यात्रा को समझने में मदद मिलती है और परिवार को मृत्यु के आध्यात्मिक अर्थ को समझने में शांति मिलती है।
- घर की शुद्धि: 10वें या 11वें दिन, घर की शुद्धि के लिए पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर का मिश्रण) का छिड़काव किया जाता है।
- सपिंडीकरण (12वां दिन): 12वें दिन सपिंडीकरण श्राद्ध किया जाता है। यह माना जाता है कि इस अनुष्ठान के द्वारा दिवंगत आत्मा को अपने पूर्वजों के साथ पितृलोक में स्थान मिलता है। यह शोक काल के अंत और आत्मा के पितृ लोक में स्वीकार किए जाने का प्रतीक है।
5. तेरहवीं (तेरहवीं संस्कार)
जैसा कि पहले बताया गया है, तेरहवीं (Tehravin) की गणना मृत्यु के दिन से की जाती है। यह 13वें दिन आयोजित होने वाला अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, जो औपचारिक शोक काल के अंत का प्रतीक है।
- महत्व:
- यह माना जाता है कि इस दिन तक आत्मा भौतिक लोक से अपनी आगे की यात्रा (यमलोक या अगले जन्म की ओर) पर निकल चुकी होती है।
- यह परिवार के लिए भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से समापन का अवसर होता है।
- यह दिवंगत आत्मा के प्रति सम्मान, प्रेम और कृतज्ञता व्यक्त करने का अंतिम बड़ा अवसर होता है।
- अनुष्ठान:
- पिंड दान और हवन: तेरहवीं पर, विस्तृत पिंड दान और हवन (अग्नि अनुष्ठान) किए जाते हैं, जिसमें ब्राह्मणों द्वारा मंत्रोच्चार किया जाता है।
- ब्राह्मण भोज: इस दिन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और दान (वस्त्र, अन्न, धन आदि) दिया जाता है। यह माना जाता है कि ब्राह्मणों को दिए गए दान और भोजन का पुण्य सीधे दिवंगत आत्मा को प्राप्त होता है, जिससे उसे शांति और सद्गति मिलती है।
- मृत्यु भोज (संक्षिप्त चर्चा): कुछ क्षेत्रों में इस दिन ‘मृत्यु भोज’ का आयोजन किया जाता है, जिसमें सभी रिश्तेदारों और समाज के लोगों को भोजन कराया जाता है। हालांकि, कुछ शास्त्रों, जैसे महाभारत के अनुशासन पर्व, में मृत्यु भोज के सेवन को नकारात्मक माना गया है, विशेषकर धनी व्यक्तियों द्वारा। इसके बजाय, गरीब और ब्राह्मणों को भोजन कराना अधिक पुण्यकारी माना जाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार, 13वें दिन तक आत्मा परिवार के साथ घर में रहती है, और इस दिन भोजन अर्पित करने से दिवंगत आत्मा को लाभ मिलता है।
- शांति पाठ और अंतिम प्रार्थना: इस दिन शांति पाठ और अंतिम प्रार्थनाएं की जाती हैं, जिससे दिवंगत आत्मा को शांति मिले और परिवार को इस दुःख से उबरने में शक्ति मिले।
- पगड़ी रस्म (कुछ समुदायों में): कुछ समुदायों में, तेरहवीं पर पगड़ी रस्म भी होती है, जिसमें परिवार के सबसे बड़े पुरुष सदस्य को पगड़ी पहनाई जाती है, जो परिवार के मुखिया के रूप में उसकी नई भूमिका का प्रतीक है।
उदाहरण: यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु 1 जून को सुबह 10 बजे होती है, तो 13 दिन की गणना 1 जून से ही शुरू होगी और तेरहवीं 13 जून को पड़ेगी। इस दिन, परिवार के सभी सदस्य, रिश्तेदार और मित्र एकत्रित होते हैं। एक पुजारी के मार्गदर्शन में हवन और पिंड दान होता है। इसके बाद, ब्राह्मणों और ज़रूरतमंदों को भोजन कराया जाता है और दक्षिणा दी जाती है। यह परिवार के लिए शोक से सामान्य जीवन की ओर लौटने का एक महत्वपूर्ण चरण होता है।
6. वार्षिक श्राद्ध और अन्य अनुष्ठान
तेरहवीं के बाद, शोक काल समाप्त हो जाता है, लेकिन आत्मा को याद करने और उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने का क्रम जारी रहता है।
- मासिक श्राद्ध: मृत्यु के बाद कुछ महीनों तक मासिक श्राद्ध भी किए जाते हैं।
- वार्षिक श्राद्ध (तिथि): प्रत्येक वर्ष मृतक की मृत्यु तिथि (हिन्दू पंचांग के अनुसार) पर श्राद्ध किया जाता है। यह एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है जिसमें पितरों को भोजन, जल और प्रार्थनाएं अर्पित की जाती हैं। यह माना जाता है कि इन अनुष्ठानों से पितरों को तृप्ति मिलती है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं।
- पितृ पक्ष: हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, पितृ पक्ष नामक एक विशेष अवधि होती है (जो आमतौर पर सितंबर-अक्टूबर में आती है), जिसमें सभी पूर्वजों के लिए सामूहिक रूप से श्राद्ध किया जाता है।
उदाहरण: यदि किसी के पिता का निधन हुआ है, तो हर साल उनकी मृत्यु तिथि पर परिवार के सदस्य श्राद्ध करेंगे। इसमें पितरों के लिए विशेष भोजन बनाया जाएगा, कौवों को खिलाया जाएगा (जो पितरों का रूप माने जाते हैं), और ब्राह्मणों को भोजन व दान दिया जाएगा।

7. संस्कारों का दार्शनिक आधार
इन सभी मृत्यु उपरांत संस्कारों का गहरा दार्शनिक आधार है:
- आत्मा की यात्रा को सुगम बनाना: मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दिवंगत आत्मा को बिना किसी बाधा के अपनी अगली यात्रा (पुनर्जन्म या मोक्ष) मिल सके।
- कर्मफल का सिद्धांत: इन अनुष्ठानों को दिवंगत आत्मा के कर्मों को शुद्ध करने और उसे सद्गति दिलाने में सहायक माना जाता है। दान-पुण्य से मृतक के लिए पुण्य संचय होता है।
- परिवार को सांत्वना: ये अनुष्ठान शोक संतप्त परिवार को दुःख से उबरने, भावनात्मक समापन प्राप्त करने और मृत्यु की वास्तविकता को स्वीकार करने में मदद करते हैं।
- सामाजिक और सामुदायिक जुड़ाव: ये संस्कार परिवार और समुदाय को एक साथ लाते हैं, जिससे शोक संतप्त परिवार को भावनात्मक समर्थन मिलता है।
- पितृ ऋण चुकाना: इन अनुष्ठानों के माध्यम से वंशज अपने पूर्वजों के प्रति अपना ऋण और सम्मान व्यक्त करते हैं, जिससे परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है।
सारांश में, हिन्दू धर्म में मृत्यु एक अंत नहीं, बल्कि एक परिवर्तन है। मृत्यु के बाद किए जाने वाले संस्कार, विशेषकर तेरहवीं, आत्मा की आगे की यात्रा को सुगम बनाने, उसे शांति प्रदान करने और परिवार को दुःख से उबरने में मदद करने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इन सभी अनुष्ठानों का मूल शास्त्रों, विशेषकर गरुड़ पुराण में निहित है, और ये भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन का एक अभिन्न अंग हैं।