संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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मेरुतीर्थ, लोकपालतीर्थ, दण्डपुष्करिणी, गंगा संगम तथा धर्मक्षेत्र आदि का माहात्म्य और ग्रन्थ का उपसंहार…(भाग 1)
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भगवान् शिव कहते हैं- ब्रह्मकुण्ड से दक्षिण नर का निवासभूत महान् पर्वत है। जहाँ भगवान् श्रीहरि ने लोकसुन्दर मेरुपर्वत को स्थापित किया है। जब भगवान् का निवास विशालापुरी में हुआ,
तब विद्याधर और चारणों सहित सम्पूर्ण देवता, महर्षि और सिद्ध भगवद्दर्शन के लिये उत्कण्ठित हो मेरुपर्वत के शिखरों को छोड़कर वहाँ आ गये। भगवान् के दर्शन से उन्हें ऐसा आह्लाद प्राप्त हुआ कि देवलोक तुच्छ प्रतीत होने लगा। तब भगवान ने उनके सुख के लिये एक ही हाथ से मेरुपर्वत के शिखरों को उखाड़ लिया और लीलापूर्वक उन्हें यहाँ स्थापित कर दिया; क्योंकि भगवान् विष्णु सबकी प्रीति बढ़ाने वाले हैं। उस समय वहाँ सुवर्णनिर्मित पर्वत को देखकर सब देवता बड़े प्रसन्न हुए और रोग-शोक से रहित भगवान् नारायण का उन्होंने इस प्रकार स्तवन किया।

देवता बोले- जो हम देवताओं के सुख के लिये तथा संसारबन्धन जनित दुःख को दूर करने के लिये लीलामय शरीर धारण करके स्वर्णमय पर्वत को यहाँ ले आये हैं तथा जिन्होंने एकमात्र देवताओं का पक्ष लेकर सैकड़ों दैत्यों पर विजय पायी है, उग्र तपस्या की दिव्य शोभा से सम्पन्न उन भगवान् नारायण को हम नमस्कार करते हैं। जो दीनजनों की पीड़ारूपी रूई को भस्म करने के लिये अग्निमय पर्वत हैं, हमपर दया करके जो हमें दयालु पिता की भाँति उत्तम शिक्षा देते हैं, त्रिभुवन की रक्षा करने में समर्थ दृष्टिपात से जो पूर्णसुधा का समुद्र प्रवाहित करते हैं, वे भगवान् विपत्तियों से हमारी रक्षा करें। ऋषि बोले- ‘यह समस्त संसार जिनसे व्याप्त होकर शोभा पा रहा है, उन आप सनातन प्रभु को हम प्रणाम करते हैं।’ सिद्ध बोले- ‘भगवान् की दया के लवलेशमात्र से महापुरुष सिद्धि को प्राप्त हुए हैं तथा दूसरे संसारी मनुष्य भी उनकी कृपा के कणमात्र से भयंकर संसारसागर से शीघ्र ही पार हो गये हैं। ऐसा हमारी बुद्धि का निश्चय है।’ विद्याधर बोले- ‘सर्वव्यापी प्रभो! आप सद्गुणों के समूह, कल्याण की मूर्ति परमेश्वर और सम्मान के विस्तार में हेतु हैं, आपके चरणारविन्दों के रस का आस्वादन करके हम कृतार्थ हो गये।’
क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी