🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷
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प्रथम सृष्टि का वर्णन…(भाग 1)
सूतजी कहने लगे – अदृश्य जो शिव है वह दृश्य प्रपंच (लिंग) का मूल है। इससे शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है। इसलिये यह दृश्य जगत भी शैव यानी शिवस्वरूप है। प्रधान और प्रकृति को ही उत्तमौलिंग कहते हैं। वह गंध, वर्ण, रस हीन है तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित है परन्तु शिव अगुणी, ध्रुव और अक्षय हैं। उनमें गंध, रस, वर्ण तथा शब्द, स्पर्श आदि लक्षण हैं। जगत आदि कारण, पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरूप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होता है।

यह संसार पहले सात प्रकार से, आठ प्रकार से और ग्यारह प्रकार से (10 इन्द्रियाँ, एक मन) उत्पन्न होता है। यह सभी अलिंग शिव की माया से व्याप्त हैं। सर्व प्रधान तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव रूप ही हैं। उनमें वे एक स्वरूप से उत्पत्ति, दूसरे से पालन तथा तीसरे से संहार करते हैं। अतः उनको शिव का ही स्वरूप जानना चाहिये। यथार्थ में कहा जाये तो ब्रह्म रूप ही जगत है और अलिंग स्वरूप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वही परमेश्वर हैं। क्योंकि योनि (प्रकृति) और बीज तो निर्जीव हैं यानी व्यर्थ हैं। किन्तु शिवजी ही इसके असली बीज हैं। बीज और योनि में आत्मा रूप शिव ही हैं। स्वभाव से ही परमात्मा हैं वही मुनि, वही ब्रह्मा तथा नित्य बुद्ध है वही विशुद्ध है। पुराणों में उन्हें शिव कहा गया है।

हे ब्राह्मणों! शिव के द्वारा देखी गई प्रकृति शैवी है। वह प्रकृति रचना आदि में सतोगुणादि गुणों से युक्त होती है। वह पहले से तो अव्यक्त है।
अव्यक्त से लेकर पृथ्वी तक सब उसी का स्वरूप बताया गया है। विश्व को धारण करने वाली जो यह प्रकृति है वह सब शिव की माया है। उसी माया को अजा कहते हैं। उसके लाल, सफेद तथा काले स्वरूप क्रमशः रज, सत् तथा तमोगुण की बहुत सी रचनायें हैं।

संसार को पैदा करने वाली इस माया को सेवन करते हुए मनुष्य इसमें फंस जाते हैं तथा अन्य इस मुक्त भोग माया को त्याग देते हैं। यह अजा (माया) शिव के आधीन है।