मारवाड़ का एक अनोखा भक्त-चरित्र-भक्तदेवी -फूलीबाई

मारवाड़ वीरता के लिए विश्व विश्रुत है।
यहां की वीर प्रसू -भूमि में अनेकों संत -महात्माओं ने भी अपनी इहलोक – लीला की है ,इसका अभी बहुत कम परिचय हो पाया है। यहां के सिकता – समूह के नीचे भक्ति की वेगवती सरिता उन्मादिनी की तरह लहरा कर लुप्त प्राय हो गई है ।
यहां के जिन भक्तों का संसार को थोड़ा सा परिचय मिला है वह संख्या में थोड़े होते हुए भी गुण गरिमा में महान हैं।
महाराजा मानसिंह के मनोहर भजन और मेवाड़ की मंदाकिनी महा मनस्विनी मीरा के प्रेममद से परिपूर्ण पद आज भी घर -घर में गूंज रहे हैं।
भक्त देवी फुली बाई का चरित्र भी भक्तों के इतिहास में अपना गौरवपूर्ण विशिष्ट स्थान रखता है फुलीबाई बाई के चारु चरित्र का जितना अंश ज्ञात है वही, उसके चरित्र की उच्चता ,निर्भरता, निष्ठा और निश्चय का पूरा परिचय देने के लिए पर्याप्त है।
जोधपुर के सुविख्यात नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी के शासनकाल में, फूली बाई की साधना फूली- फली थी।
महाराजा जसवंत सिंह अपने समय के सबसे प्रतापी हिंदू नरेश थे ।
वे उच्च कोटि के साहित्य मर्मज्ञ और तत्वज्ञान संपन्न व्यक्ति थे ।
“अपरोक्ष सिद्धांत “,’अनुभव प्रकाश ‘तथा ‘आनंद विलास ‘आदि आप की प्रसिद्ध आध्यात्मिक कृतियां हैं ।
महाराजा का शासन काल संवत 1695 से 1735 तक था।
फुलीबाई भी इस बीच में मौजूद थी, फूली बाई की जन्म ,निधन ,तिथि अज्ञात है।
फूली बाई मारवाड़ के एक छोटे से गांव में जाट परिवार मे पैदा हुई थी,।
उसका लालन-पालन नाना के घर मांझूवास नामक गांव में हुआ था।
वह कृषक -बालिका थी, उसका बचपन खेतों में ही बीता।
एक दिन फूलीबाई ‘भाता’
(खेत को ले जाया जानेवाला भोजन)
लेकर खेत को जा रही थी।
भगाँणा गांव के सुप्रसिद्ध संत ज्ञानी जी उधर से आ रहे थे ,।

ज्ञानी जी ने कृषक- कन्या की ओर ध्यान से देखा, और उसके हृदय में सोती हुई आध्यात्मिक भावना को परखा ,उनकी आंखों के सामने फूलीबाई का भावी भव्य रुप झूलने लगा
ज्ञानी जी ने कहा बाई !’मैं भूखा हूं ‘
मुझे थोड़ा भोजन चाहिए फूली बाई रुकी, उसने श्रद्धा से मस्तक झुकाया य और बड़ी भक्ति के साथ भोजन सामने रख दिया।
ज्ञानी जी ने भोजन करते हुए फूली के सिर पर हाथ फेरा और राम- नाम के अमृत- रस का उपदेश दिया। फूलीबाई ने कृतज्ञता से अपना सिर झुका लिया ।वह ‘राम -नाम’ गुरु मंत्र को पाकर कृतकृत्य हो गई ।
उसका हृदय जिसकी खोज में बेचैन था वह मानो आज वरदान रूप में उसे मिल गया। फूली बाई ने तभी से ज्ञानी जी को अपना आध्यात्मिक ‘गुरु’ स्वीकार किया ।
उनके हाथों भगवत -भजन की रखी हुई चिनगारी,फूली की सतत- साधना और अनन्य -भावना से सुलग उठी ।
उसकी ज्वाला में कलुश- कल्मश
जलकर छार हो गए।
फूली का जीवन कुंदन की तरह जगमगा उठा।
उसके बाद फुलीबाई अपना समय, एकांत चिंतन और भगवद- भजन में व्यक्तित करने लगी, उसका हृदय सांसारिक सुखों और भोगों से भागने लगा ,।
फुलीबाई विवाह के योग्य हो गई पर नाना को न उसमें बाल सुलभ चफलता दिखाई दी और न किशोरावस्था के सुख- सवप्नों की मादकता ।नाना ने विवाह करने का निश्चय किया फूली ने इसमें किसी प्रकार की भी अनुरक्ति नहीं दिखाई, चुपचाप सगाई कर दी गई ।
और एक दिन बरात भी गांव की सीमा पर आ गई। फूली यह सुनकर भीत्त- मृगी की तरह चकित- विस्मित हो गई ।
उसके हृदय में विचार मंथन चलने लगा उसने मन ही मन कहा —–
“जानी आना गोरबे फूली किओ विचार ।
सब संता रो साहिबो,
सो मेरो भरतार ।।

पुली के हृदय में तरह-तरह के संकल्प- विकल्प उठने लगे ।उसने सोचा –‘मैं इस मुर्दे से क्या विवाह करूं! यह तो आज है कल मर जाएगा,’ फिर चिर वैधव्य, जो समस्त संतो का स्वामी है वही मेरा भरतार है। उस अमर पुरुष से विवाह क्यों नहीं किया जाए। अंत में फूली ने अमर पुरुष से विवाह करने का निश्चय किया।
नाना को उसने स्पष्ट कह दिया कि मैं विवाह नहीं करुंगी नाना ने समझाया- बुझाया पर फूली ने एक न सुनी ।फूली को उसके पूर्व संस्कारों ने बल- संबल दिया, फूली ने स्पष्ट कहा–
फूली कयो कुमारी परणै, में तो पार ब्रम्ह पत्ती शरणै।।
विवाह तो कुमारी का होता है मेरा पति तो परब्रह्म है फिर मैं दूसरा विवाह कैसे करूं। इस तर्क के सामने नाना को झुकना पड़ा। उसने झुंझलाकर पूछा बता तेरा पति कहां है —फूली ने उत्तर दिया ———— “फूली को परमेश्वर ऐसो, वेद- पुराण न जाणैं कैसो।
” जन्म -मरण में नाहिनप्यारो, सो है फूली को भर तारो ।।
फूली ने हिमालय सी– दृढता दिखाई ।बारात लोट गई ।

गांव गांव में यह चर्चा फैल गई। फूलीअपने घर का काम-काज करती और अपना समय संत समागम में बिताने लगी ।
यहां राज- महिषी मीरा की तरह ,”संतन ढिंंग बैठे बैठे” लोक-लाज खोनेकी न
कोई विशेष आशंका थी और न भय-भीति ।
संतो से उसने बहुत कुछ पाया ।
दूर दूर तक फूली का नाम फैल गया,।
वह अपने आप में डूब गई, उसे जो कुछ आतम – रस मिला ,उसके द्वारा उसके अध्यातम का द्वार खुल गया। दूर दूर से चलकर साधुओं के दल के दल फूलीबाई के दर्शन के लिए आते। वह सबका यथोचित आदर सत्कार करती ।
एक बार एक साधु- मंडली फूली बाई का दर्शन कर काबूल की ओर जा निकली,।
महाराजा जसवंत सिंह भीउस समय ससैन्य उधर ही बिचर रहे थे ।
महाराजा का पता लगने पर साधुओं ने आपस में ,”कानाफूसी “करनी शुरु की ,
वे आपस में कहने लगे– ‘महाराजा से बातें नहीं करना’ यह फुलीबाई के देश के हैं’। निस:देह कोई बड़े तत्वज्ञानी होंगे’।,
