भक्त नरसी मेहता जन्म दिवस विशेष
गुजराती साहित्य के आदि कवि संत नरसी मेहता का जन्म 1414 ई. में जूनागढ़ (सौराष्ट्र) के निकट, तलाजा ग्राम में एक नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता-पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था। इसलिए अपने चचेरे भाई के साथ रहते थे। अधिकतर संतों की मंडलियों के साथ घूमा करते थे और 15-16 वर्ष की उम्र में उनका विवाह हो गया। कोई काम न करने पर भाभी उन पर बहुत कटाक्ष करती थी। एक दिन उसकी फटकार से व्यथित नरसिंह गोपेश्वर के शिव मंदिर में जाकर तपस्या करने लगे। मान्यता है कि सात दिन के बाद उन्हें शिव के दर्शन हुए और उन्होंने कृष्णभक्ति और रासलीला के दर्शनों का वरदान मांगा। इस पर द्वारका जाकर रासलीला के दर्शन हो गए। अब नरसिंह का जीवन पूरी तरह से बदल गया। भाई का घर छोड़कर वे जूनागढ़ में अलग रहने लगे। उनका निवास स्थान आज भी ‘नरसिंह मेहता का चौरा’ के नाम से प्रसिद्ध है। वे हर समय कृष्णभक्ति में तल्लीन रहते थे। उनके लिए सब बराबर थे। छुआ-छूत वे नहीं मानते थे और हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके साथ कीर्तन किया करते थे। इससे बिरादरी ने उनका बहिष्कार तक कर दिया, पर वे अपने मत डिगे नहीं।

पिता के श्राद्ध के समय और विवाहित पुत्री के ससुराल उसकी गर्भावस्था में सामग्री भेजते समय भी उन्हें दैवी सफलता मिली थी। जब उनके पुत्र का विवाह बड़े नगर के राजा के वजीर की पुत्री के साथ तय हो गया। तब भी नरसिंह मेहता ने द्वारका जाकर प्रभु को बारात में चलने का निमंत्रण दिया। प्रभु श्यामल शाह सेठ के रूप में बारात में गए और ‘निर्धन’ नरसिंह के बेटे की बारात के ठाठ देखकर लोग चकित रह गए। हरिजनों के साथ उनके संपर्क की बात सुनकर जब जूनागढ़ के राजा ने उनकी परीक्षा लेनी चाही तो कीर्तन में लीन मेहता के गले में अंतरिक्ष से फूलों की माला पड़ गई थी। निर्धनता के अतिरिक्त उन्हें अपने जीवन में पत्नी और पुत्र की मृत्यु का वियोग भी झेलना पड़ा था। पर उन्होंने अपने योगक्षेम का पूरा भार अपने इष्ट श्रीकृष्ण पर डाल दिया था। जिस नागर समाज ने उन्हें बहिष्कृत किया था अंत में उसी ने उन्हें अपना रत्न माना और आज भी गुजरात में उनकी वह मान्यता है।
भक्त नरसी मेहता के जीवन से जुड़ी कुछ अद्भुद चमत्कारिक घटनाएं
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एक समय नरसिंह की ध्योती की शादी थी। नरसिंह की लड़की उन्हें शगुन के तोर पर गुड देते हुए बोली की पिता जी आप ने शादी में जरुर आना है। नरसिंह बहुत गरीब थे उन्होंने कहा की बेटी मेरे पास तो शादी में देने के लिये कुछ भी नहीं है। मैं आ जाऊंगा लेकिन भगवान का नाम ही लूँगा। जब नरसिंह जी ध्योती की शादी में पहुंचे तो किसी स्त्री ने उन की समधनि ने पूछा की लड़की के मामा और नाना में आये है, उन्होंने कन्यादान में क्या दिया है। आगे से समधनि ने मजाक में कह दिया की दो भाठे दिये हैं।

यह सुन कर नरसिंह शर्मिंदा हो गये और भगवान को याद कर उन्हें उसकी इज्जत बचाने को कहने लगे। तभी भगवान बैल गाडी लाद कर सामान की लाए। भगवान लड़की के लिये लाल सूट, चुनरी, विवाह की सारी जरी (कपडे), गहना, मोती, हीरे, घोड़े, पालकी तथा अनेक तरह के उपहार ले कर आए। नरसिंह जी ने खुशी खुशी भात (नानकशक) दिया। तभी दोनों भाठे धूं धूं कर टूट गये और सभी देख कर हैरान रह गये की दोनों भाठे सोने और चांदी से भरे थे। और इस तरह भगवान ने अपार सामग्री देकर अपने प्रिय भगत नरसिंह की लाज रख ली।
सावळ शाह सेठ की कथा
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एक बार द्वारका को जाने वाले कुछ साधु नरसिंह जी के पास आये और उन्हें पांच सौ रूपये देते हुए कहा की आप काफी प्रसिद्ध व्यक्ति हो आप अपने नाम की पांच सौ रुपयों की हुंडी लिख कर दे दो हम द्वारका में जा कर हुंडी ले लेंगे। पहले तो नरसिंह जी ने मना करते हुए कहा की मैं तो गरीब आदमी हूँ, मेरे पहचान का कोई सेठ नहीं जो तुम्हे द्वारका में हुंडी दे देगा, पर जब साधु नहीं माने तो उन्होंने कागज ला कर पांच सौ रूपये की हुंडी द्वारका में देने के लिये लिख दी और देने वाले (टिका) का नाम सांवल शाह लिख दिया।
(हुंडी एक तरह के आज के डिमांड ड्राफ्ट के जैसी होती थी। इससे रास्ते में धन के चोरी होने का खतरा कम हो जाता था। जिस स्थान के लिये हुंडी लिखी होती थी, उस स्थान पर जिस के नाम की हुंडी हो वह हुंडी लेने वाले को रकम दे देता था। )

द्वारका नगरी में पहुँचने पर संतों ने सब जगह पता किया लेकिन कहीं भी सांवल शाह नहीं मिले। सब कहने लगे की अब यह हुंडी तुम नरसीला से हि लेना।
उधर नरसिंह जी ने उन पांच सौ रुपयों का सामान लाकर भंडारा देना शुरू कर दिया। जब सारा भंडारा हो गया तो अंत में एक वृद्ध संत भोजन के लिये आए। नरसिंह जी की पत्नी ने जो सारे बर्तन खाली किये और जो आटा बचा था उस की चार रोटियां बनाकर उस वृद्ध संत को खिलाई। जैसे ही उस संत ने रोटी खाई वैसे ही उधर द्वारका में भगवान ने सांवल शाह के रूप में प्रगट हो कर संतों को हुंडी दे दी।
आचार्य जी अन्न्देव की छोटी आरती में भी इस बात का प्रमाण देते हैं। जैसे रोटी चार भारजा घाली, नरसीला की हुंडी झाली।
(भारजा – पत्नी, घाली- डाली, देना, झाली- हो गई)
सांवल शाह एक सेठ का भेष बनाकर संतों के सामने आए और भरे चौक में संतों को हुंडी के रूपये दिये। द्वारका के सभी सेठ देखते ही रह गये।
तीर्थ यात्रा की कथा
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एक समय नरसिंह और उनके भाई तीर्थ यात्रा पर जाते समय एक जंगल में से गुजर रहे थे। दोनों बहुत थक चुके थे और भूख भी बहुत लगी थी। कुछ दुरी पर एक गाँव दिखाई दिया। उस गाँव के कुछ लोग इन दोनों के पास आये और कहा की अगर आप कहें तो हम आप के लिये खाना ले आते हैं, पर लेकिन हम शुद्र (नीच) जाती के हैं। नरसिंह जी ने उन्हें कहा की सभी परमेश्वर की संतान हैं आप तो हरि के जन हैं मुझे आप का दिया भोजन खाने में कोई आपत्ति नहीं। नरसिंह ने खुशी से भोजन खाया लेकिन उनके भाई ने भोजन खाने से इनकार कार दिया। चलने से पहले नरसिंह जब गाँव वालों का धन्यवाद करने के लिये उठे तो उन्हें कहीं भी गाँव नजर नहीं आया।
नरसी जी ने गिरवी रखा मूंछ का बाल
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नरसी मेहता भगवान कृष्ण के महान भक्त थे। वे बहुत बड़े दानी भी थे और श्रीकृष्ण के नाम पर उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया। उनकी भक्ति के प्रताप से नानी बाई का मायरा भरने स्वयं श्रीकृष्ण को आना पड़ा। नरसी जी के जीवन पर आधारित एक कथा भी है, जो बताती है कि वे कितने बड़े दानवीर थे और सत्य के प्रति उनकी कैसी निष्ठा थी।
एक बार नरसीजी साधु-संतों के साथ किसी तीर्थस्थल के मंदिरों में दर्शन कर रहे थे। वे अपनी धन-संपत्ति दान कर चुके थे। अब भगवान का नाम ही उनकी सबसे बड़ी संपत्ति था।
मंदिर से बाहर आते ही उन्हें याचकों ने घेर लिया और धन-भोजन आदि मांगने लगे। पास में एक पैसा नहीं और यहां याचकों की भीड़ लगी थी! किसे क्या दें? नरसीजी चिंतित हो गए। तभी उन्हें एक उपाय सूझा।

धन नहीं है तो क्या हुआ? अब भी उनके पास गिरवी रखने योग्य एक वस्तु थी। उनका मानना था कि पुरुष की मूंछ भी उसकी प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान का प्रतीक होती हैं। इसलिए वे एक साहूकार के पास गए और अपनी मूंछ का एक बाल गिरवी रख आए।
साहूकार ने इसके बदले उन्हें धन दे दिया और नरसीजी ने वह संपूर्ण धन याचकों को दान कर दिया। यह दृश्य नरसीजी के नगर का एक व्यक्ति भी देख रहा था। उसने सोचा, क्यों न मैं भी नरसी की तरह अपना एक बाल गिरवी रख दूं और काफी धन हासिल कर लूं!
वह साहूकार के पास गया और बोला, मेरी मूंछ का एक बाल गिरवी रखकर मुझे भी उतनी उतना दे दीजिए जितना आपने नरसी को दिया है।
साहूकार ने कहा, ठीक है आप मूंछ का बाल दीजिए। अभी आपको धन दे दूंगा।
उस व्यक्ति ने मूंछ का बाल दिया, लेकिन साहूकार बोला- यह तो सीधा नहीं है। कोई और बाल दीजिए।
वह व्यक्ति एक के बाद एक बाल उखाड़कर देता रहा लेकिन साहूकार हर बार कोई खोट निकाल देता। आखिरकार उसका धैर्य जवाब दे गया।
वह बोला- आपको मेरी उस पीड़ा की परवाह नहीं जो मूंछ का बाल उखाड़ने से मुझे हो रही है। हर बार नया बाल उखाड़ने से मेरी आंखों में आंसू भी आ गए लेकिन आप मेरा कष्ट नहीं समझ सकते।
साहूकार बोला- भाई, तुम्हारी मूंछ का बाल इस योग्य नहीं कि उसे गिरवी रखकर एक कौड़ी भी दी जाए। मैंने नरसी को भी इसी तरह परखा था, हर बाल में कोई कमी निकाल देता, लेकिन न जाने वह किस मिट्टी से बना मानव था!
उसकी आंखों में आंसू आ गए परंतु वह अपने संकल्प से नहीं डिगा। उसके लिए दीन-दुखियों के आंसू ज्यादा मूल्यवान थे। इसीलिए मैंने उसकी मूंछ के सिर्फ एक बाल के लिए काफी धन दे दिया और वह उसने मेरी आंखों के सामने दान कर दिया। ऐसे भक्त को साहूकार तो क्या भगवान भी कभी मना नहीं कर सकता।
भक्त नरसी की ऐसी दानशीलता के बारे में जानकर उस व्यक्ति की आंखें खुल गईं। वह नरसीजी की महानता और साहूकार की सूझबूझ को प्रणाम कर वहां से चला गया।