श्री गणेश जी के मोरया नाम का रहस्य

दिलचस्प है मोरया शब्द की कहानी
इसके पीछे कई रोचक कहानियां हैं जिनसे गणेशजी की भक्ति जुड़ी हुई है। दरअसल गणेश उत्सव की शुरुआत महाराष्ट्र से हुई है जिसे आरंभ करने वाले लोकमान्य तिलक हैं। महाराष्ट्र से यह धीरे-धीरे पूरे देश का उत्सव बन गया। महाराष्ट्र में पिता को बप्पा कहते हैं। गणपति को भक्तों ने धरती वासियों के पिता के रूप में माना और बप्पा कहना शुरू कर दिया इस तरह गणपति बप्पा कहलाने लगे। लेकिन इनके मोरया कहलाने की कहानी बेहद दिलचस्प है।
महाराष्ट्र के मयूरेश्वर मंदिर से भी है मोरया शब्द का संबंध
गणेश पुराण में गणेशजी की सवारी मोर बताया गया है। मोर पर सवार होने के कारण इन्हें मयूरेश्वर भी कहते हैं। मयूर इनकी सवारी होने के कारण इन्हें मोरया कहा जाता है। लेकिन मयूरेश्वर और मोरया के साथ एक और रोचक कथा जुड़ी हुई है जिसका संबंध महाराष्ट्र के मयूरेश्वर मंदिर और मोरया गोसावी नामक एक गणेश भक्त से है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसका संबंध महाराष्ट्र के चिंचवाड़ गांव से है। बात करीब 600 साल पहले की है, जहां मोरया गोसावी नाम के गणेश भक्त रहा करते थे। 375 ई. में जन्मे मोरया गोसावी को भगवान गणेश का ही अंश माना जाता है। कहा जाता है कि वह अपने माता-पिता के समान ही गणेश भगवान के भक्त थे। बप्पा के लिए उनकी भक्ति इसकी ज्यादा थी कि वह हर गणेश चतुर्थी चिंचवाड़ से 95 किलोमीटर दूर स्थित मयूरेश्वर मंदिर में दर्शन पैदल चलकर के लिए जाते थे।
खुद भक्त के पास पहुंचे भगवान
पैदल मंदिर जाने का यह सिलसिला 117 की उम्र तक चलता रहा, लेकिन फिर उम्र होने की वजह से उन्हें इतना दूर जाने में परेशानी होनी लगी। ऐसे में एक बार भगवान गणेश उनके सपने में आए और मोयरा से बोले कि तुम्हें मंदिर तक आने की जरूरत नहीं। कल सुबह जब तुम स्नान करके कुंड से निकलोगे, तो मैं खुद तुम्हारे पास आ जाऊंगा। अगले दिन सुबह जब मोरया स्नान करके कुंड से निकलने, तो उनके पास गणेश भगवान की ठीक वैसी ही छोटी- सी मूर्ति थी, जैसी उन्होंने सपने में देखी थी।
भगवान के साथ जुड़ गया भक्त का नाम
उन्होंने बप्पा की इस मूर्ति को चिंचवाड़ में स्थापित किया और धीरे-धीरे ये मंदिर और मोरया की भक्ति दूर-दूर तक लोगों के बीच मशहूर होने लगी। इसके बाद से ही हर कोई उनके दर्शन के लिए चिंचवाड़ के इस मंदिर आने लगा और भगवान गणेश का नाम लेने के साथ ही वह मोरया का नाम भी लेने लगे और इस तरह गणपति बप्पा और मोरया का नाम एक होता गया और लोगों में भगवान गणेश का जयकारा लगाते हुए गणपति बप्पा मोरया पुकारना शुरू कर दिया।
कार्तिक की कहानियाँ (तारा भोजन की कहानी)
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एक राजा की लड़की तारा भोजन करती थी। उसने अपने पिताजी से कहा, पिताजी मुझे नौ लाख तारे बनवा दो, मैं, दान करूँगी। राजा ने सुनार को बुलाया और कहा कि मेरी बेटी तारा भोजन करती है तुम नौ लाख तारे बना दो। इतना सुनकर सुनार सूखने लगा।
सुनारी ने पूछा कि उदास क्यों रहते हो। उसने कहा राजा की लड़की ने नौ लाख तारे बनाने के लिए कहा है। मैं कैसे बनाऊँ मुझे तारे बनाने नहीं आते। राजा की बात है, नहीं बने तो कोल्हू में पिलवा देगा।

सुनारी ने कहा, इसमें परेशान होने की क्या बात है। गोल-सा पतरा काट के कलिया काट देना, राजा ले जाएगा।
सुनार ने ऐसा ही किया, राजा ले गया। राजा की लड़की ने नौ लाख तारे और बहुत-सा दान दिया। भगवान का सिंहासन डोलने लगा। भगवान ने कहा देखों मेरे नेम व्रत पर कौन है, तीन कूट देखा तो कोई नहीं था, चौथे कूट देखा कि राजा की लड़की तारा भोजन करा रही है। भगवान ने कहा उसे ले आओ। उसने व्रत किए है। (श्रीजी की चरण सेवा” की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें) भगवान के दूतों ने कहा चलो तुम्हें भगवान ने बुलाया है। उसने कहा मैं ऐसे नहीं जाऊँगी। मैं तो सारी प्रजा को, उस सुनार को जिसने तेरे तारे बनाए, जिसने कहानी सुनी, सबको लेकर जाऊँगी। दूत उसके लिए बड़ा विमान लाए कि चलो। वह कहने लगी हाँ अब मैं चलूँगी। सब विमान में बैठकर जाने लगे रास्ते में उसे अभिमान हो गया कि मैं तारा भोजन व्रत नहीं करती तो सबको स्वर्ग कैसे मिलता। दूत ने उसे वहीं से नीचे उतार दिया कि तुम्हें अभिमान हो गया है।

दूत भगवान के पास पहुँचे तो भगवान ने कहा, इन सबमें तारा भोजन व्रत करने वाली कौन-सी है। वे बोले उसने अभिमान किया इसलिए हम उसे छोड़ आए। भगवान बोले नहीं-नहीं उसे लेकर आओ, लड़की ने सात बार क्षमा माँग ली है। क्षमा, क्षमा, क्षमा, क्षमा, क्षमा, क्षमा, क्षमा करो भगवान।
जैसे राजा की लड़की को स्वर्ग लोक मिला, वैसे भगवान सबको स्वर्ग लोक देना।
“जय जय श्री हरि”
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कार्तिक माह महात्म्य (अठारहवां अध्याय)
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अब रौद्र रूप महाप्रभु शंकर नन्दी पर चढ़कर युद्धभूमि में आये. उनको आया देख कर उनके पराजित गण फिर लौट आये और सिंहनाद करते हुए आयुद्धों से दैत्यों पर प्रहार करने लगे. भीषण रूपधारी रूद्र को देख दैत्य भागने लगे तब जलन्धर हजारों बाण छोड़ता हुआ शंकर की ओर दौडा़. उसके शुम्भ निशुम्भ आदि वीर भी शंकर जी की ओर दौड़े. इतने में शंकर जी ने जलन्धर के सब बाण जालों को काट अपने अन्य बाणों की आंधी से दैत्यों को अपने फरसे से मार डाला।

खड़गोरमा नामक दैत्य को अपने फरसे से मार डाला और बलाहक का भी सिर काट दिया. घस्मर भी मारा गया और शिवगण चिशि ने प्रचण्ड नामक दैत्य का सिर काट डाला. किसी को शिवजी के बैल ने मारा और कई उनके बाणों द्वारा मारे गये. यह देख जलन्धर अपने शुम्भादिक दैत्यों को धिक्कारने और भयभीतों को धैर्य देने लगा. पर किसी प्रकार भी उसके भय ग्रस्त दैत्य युद्ध को न आते थे जब दैत्य सेना पलायन आरंभ कर दिया, तब महा क्रुद्ध जलन्धर ने शिवजी को ललकारा और सत्तर बाण मारकर शिवजी को दग्ध कर दिया।
शिवजी उसके बाणों को काटते रहे. यहां तक कि उन्होंने जलन्धर की ध्वजा, छत्र और धनुष को काट दिया. फिर सात बाण से उसके शरीर में भी तीव्र आघात पहुंचाया. धनुष के कट जाने से जलन्धर ने गदा उठायी. शिवजी ने उसकी गदा के टुकड़े कर दिये तब उसने समझा कि शंकर मुझसे अधिक बलवान हैं. अतएव उसने गन्धर्व माया उत्पन्न कर दी अनेक गन्धर्व अप्सराओं के गण पैदा हो गये, वीणा और मृदंग आदि बाजों के साथ नृत्य व गान होने लगा. इससे अपने गणों सहित रूद्र भी मोहित हो एकाग्र हो गये. उन्होंने युद्ध बंद कर दिया।
फिर तो काम मोहित जलन्धर बडी़ शीघ्रता से शंकर का रूप धारण कर वृषभ पर बैठकर पार्वती के पास पहुंचा उधर जब पार्वती ने अपने पति को आते देखा, तो अपनी सखियों का साथ छोड़ दिया और आगे आयी. उन्हें देख कामातुर जलन्धर का वीर्यपात हो गया और उसके पवन से वह जड़ भी हो गया. गौरी ने उसे दानव समझा वह अन्तर्धान हो उत्तर की मानस पर चली गयीं तब पार्वती ने विष्णु जी को बुलाकर दैत्यधन का वह कृत्य कहा और यह प्रश्न किया कि क्या आप इससे अवगत हैं।

भगवान विष्णु ने उत्तर दिया – आपकी कृपा से मुझे सब ज्ञात है. हे माता! आप जो भी आज्ञा करेंगी, मै उसका पालन करूंगा।
जगतमाता ने विष्णु जी से कहा – उस दैत्य ने जो मार्ग खोला है उसका अनुसरण उचित है, मै तुम्हें आज्ञा देती हूं कि उसकी पत्नी का पतिव्रत भ्रष्ट करो, वह दैत्य तभी मरेगा।
पार्वती जी की आज्ञा पाते ही विष्णु जी उसको शिरोधार्य कर छल करने के लिए जलन्धर के नगर की ओर गये।
क्रमशः….
शेष जारी…