शाकम्भरी नवरात्रि उत्सव 07 से 13 जनवरी विशेष
शाकम्भरी नवरात्रि उत्सव पौष शुक्ल अष्टमी से आरम्भ होकर पौष की पूर्णिमा को समाप्त होता है।
वैसे तो वर्ष भर में चार नवरात्रि मानी गई है, आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में शारदीय नवरात्रि, चैत्र शुक्ल पक्ष में आने वाली चैत्र नवरात्रि, तृतीय और चतुर्थ नवरात्रि माघ और आषाढ़ माह में मनाई जाती है। परंतु तंत्र-मंत्र के साधकों को अपनी सिद्धि के लिए खास माने जाने वाली शाकंभरी नवरात्रि का आरंभ पौष मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी से होता है, जो पौष पूर्णिमा पर समाप्त होता है। समापन के दिन मां शाकंभरी जयंती भी मनाई जाएगी। तंत्र-मंत्र के जानकारों की नजर में इस नवरात्रि को तंत्र-मंत्र की साधना के लिए अतिउपयुक्त माना गया है। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार गुप्त नवरात्रि की भांति शाकंभरी नवरात्रि का भी बड़ा महत्व है।

इन दिनों साधक वनस्पति की देवी मां शाकंभरी की आराधना करेंगे। मां शाकंभरी ने अपने शरीर से उत्पन्न शाक-सब्जियों, फल-मूल आदि से संसार का भरण-पोषण किया था। इसी कारण माता ‘शाकंभरी’ नाम से विख्यात हुईं। ये मां ही माता अन्नपूर्णा, वैष्णो देवी, चामुंडा, कांगड़ा वाली, ज्वाला, चिंतपूर्णी, कामाख्या, चंडी, बाला सुंदरी, मनसा और नैना देवी कहलाती है।
पौराणिक महात्मय
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जब पृथ्वी पर सौ वर्षों तक वर्षा नहीं हुई, तब मनुष्यों को कष्ट उठाते देख मुनियों ने मां से प्रार्थना की। तब शाकम्भरी के रूप में माता ने अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों के द्वारा ही संसार का भरण-पोषण किया था। ‘श्री दुर्गासप्तशती’ के एकादश अध्याय और ‘अथ मूर्तिरहस्यम’ में इस बात का उल्लेख है कि देवी की अंगभूता छह देवियां- नन्दा, रक्तदंतिका, शाकम्भरी, दुर्गा, भीमा और भ्रामरी हैं। शाकम्भरी देवी का पूजन पौष शुक्ल अष्टमी (07 जनवरी) से शुरू हो रहा है, जो पौष पूर्णिमा (13 जनवरी) को समाप्त होगा। इसे शाकम्भरी नवरात्रि भी कहा जाता है।
देवी शाकम्भरी, मां आदिशक्ति जगदम्बा का एक सौम्य अवतार हैं। इन्हें शाकम्भरी नाम इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने संसार को शाक (सब्जियाँ) प्रदान कर अकाल और भुखमरी से मुक्ति दिलाई थी। मां शाकंभरी की पूजा से जीवन में समृद्धि, स्वास्थ्य और धन की प्राप्ति होती है। शाकम्भरी नवरात्रि के दौरान भक्तजन विशेष रूप से ताजे फल, सब्जियां और शाक को देवी को अर्पित करते हैं, जो उनकी कृपा प्राप्ति का माध्यम माना जाता है।
माँ शाकम्बरी
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शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पलविलोचना। गम्भीरनाभिस्त्रवलीवभूषिततनूदरी॥’
मां शाकम्भरी के शरीर की कांति नीले रंग की है। उनके नेत्र नीलकमल के समान हैं, नाभि नीची है तथा त्रिवली से विभूषित मां का उदर सूक्ष्म है। मां शाकम्भरी कमल में निवास करने वाली हैं और हाथों में बाण, शाकसमूह तथा प्रकाशमान धनुष धारण करती हैं। मां अनंत मनोवांछित रसों से युक्त तथा क्षुधा, तृषा और मृत्यु के भय को नष्ट करने वाली हैं। फूल, पल्लव आदि तथा फलों से सम्पन्न हैं। उमा, गौरी, सती, चण्डी, कालिका और पार्वती भी वे ही हैं।
‘शाकम्भरी स्तुवन ध्यायंजपन् सम्पूजयन्नमन्। अक्षययमष्नुते शीघ्रमन्नपानामृतं फलम्॥’
जो मां की स्तुति, ध्यान, जप, पूजा-वंदन करता है, वह शीघ्र ही अन्न, पान एवं अमृतरूप अक्षय फल को प्राप्त करता है। इनके प्रसाद में हलवा-पूरी, फल, शाक, सब्जी, मिश्री, मेवे का भोग लगता है। सहारनपुर के शिवालिक क्षेत्र में शाकम्भरी देवी का विशाल मेला लगता है।
शाकम्भरी माँ की पूजा विधि
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पौष मास की अष्टमी तिथि को सुबह उठकर स्नान आदि कर लें। सबसे पहले गणेशजी की पूजा करें। फिर माता शाकम्भरी का ध्यान करें। मां की प्रतिमा या तस्वीर रखें। पवित्र गंगाजल का छिड़काव करें। मां के चारों तरफ ताजे फल और मौसमी सब्जियां रखें। संभव हो, तो माता शाकम्भरी के मंदिर में जाकर सपरिवार दर्शन करें। मां को पवित्र भोजन का प्रसाद चढ़ाएं। इसके बाद मां की आरती करें। जिनका मिथुन, कन्या, तुला, मकर और कुंभ लग्न है, उन्हें मां शाकम्भरी की पूजा अवश्य करनी चाहिए।
शाकम्भरी नवरात्री पर उपाय 👉 धन धान्य कि पूर्ती हेतु देवी शाकंभरी कि पंचो-उपचार पूजन करने के बाद देवी के चित्र पर लौकी का भोग लगाएं।

शाकम्बरी देवी की पौराणिक कथा
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दुर्गम नाम का एक महान् दैत्य था। उस दुष्टात्मा दानव के पिता राजा रूरू थे। ‘देवताओं का बल “वेद” है। वेदों के लुप्त हो जाने पर देवता भी नहीं रहेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। अतः पहले वेदों को ही नष्ट कर देना चाहिये’। यह सोचकर वह दैत्य तपस्या करने के विचार से हिमालय पर्वत पर गया। मन में ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायु पीकर रहता था। उसने एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की।
उसके तेज से देवताओं और दानवों सहित सम्पूर्ण प्राणी सन्तप्त हो उठे। तब विकसित कमल के सामन सुन्दर मुख की शोभा वाले चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस पर सवार हो वर देने के लिये दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले – ‘तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो, मांग लो। आज तुम्हारी तपस्या से सन्तुष्ट होकर मैं यहाँ आया हूँ।’ ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा – सुरे,र ! मुझे सम्पूर्ण वेद प्रदान करने की कृपा कीजिये। साथ ही मुझे वह बल दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ।
दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी ‘ऐसा ही हो’ कहते हुए सत्यलोक की ओर चले गये। ब्रह्माजी को समस्त वेद विस्मृत हो गये।
इस प्रकार दुर्गम दानव ने प्रचण्ड तपस्या से चारों वेदों को प्राप्त कर लिया, ऋषियों की सभी शक्तियां दुर्गम द्वारा शोषित कर ली गई तथा यह आशीर्वाद भी प्राप्त कर लिया कि देवताओं को समर्पित समस्त पूजा उसे प्राप्त होनी चाहिये । जिससे कि वह अविनाशी हो जाये । शक्तिशाली दुर्गम ने लोगों पर अत्याचार करना आरम्भ कर दिया और धर्म के क्षय ने गंभीर सूखे को जन्म दिया और सौ वर्षों तक कोई वर्षा नहीं हुई ।
इस प्रकार सारे संसार में घोर अनर्थ उत्पन्न करने वाली अत्यन्त भयंकर स्थिति हो गयी। ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग भीषण अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर जगदम्बा की उपासना करने के हिमालय पर्वत पर गये, और अपने को सुरक्षित एवं बचाने के लिए हिमालय की कन्दराओं में छिप गए तथा माता देवी को प्रकट करने के लिए कठोर तपस्या की । समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उन्होंने देवी की स्तुति की। वे निराहार रहते थे। उनका मन एकमात्र भगवती में लगा था। वे बोले – ‘सबके भीतर निवास करने वाली देवेश्वरी ! तुम्हारी प्रेरणा के अनुसार ही यह दुष्ट दैत्यसब कुछ करता है। तुम बारम्बार क्या देख रही हो ? तुम जैसा चाहो वैसा ही करने में पूर्ण समर्थ हो। कल्याणी! जगदम्बिके प्रसन्न हो हम तुम्हें प्रणाम करते हैं।”इस प्रकार ब्राह्मणों के प्रार्थना करने पर भगवती पार्वती, जो ‘भुवनेश्वरी’ एवं महेश्वरी’ के नाम से विखयात हैं।,
ब्रह्मा, विष्णु आदि आदरणीय देवताओं के इस प्रकार स्तवन एवं विविध द्रव्यों के पूजन करने पर भगवती जगदम्बा तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग की समाधि, ध्यान और पूजा के द्वारा उनके संताप के करुण क्रन्दन से विचलित होकर, ईश्वरी- माता देवी-फल, सब्जी, जड़ी-बूटी, अनाज, दाल और पशुओं के खाने योग्य कोमल एवं अनेक रस से सम्पन्न नवीन घास फूस लिए हुए प्रकट हुईं और अपने हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये।,शाक का तात्पर्य सब्जी होता है, इस प्रकार माता देवी का नाम उसी दिन से ”शाकम्भरी” पड गया।
जगत् की रक्षा में तत्पर रहने वाली करूण हृदया भगवती अपनी अनन्त आँखों से सहस्रों जलधारायें गिराने लगी। उनके नेत्रों से निकले हुए जल के द्वारा नौ रात तक त्रिलोकी पर महान् वृष्टि होती रही।

वे अनगिनत आँखें भी रखती थीं। इसलिए उन्हें सताक्षी के नाम से पुकारा गया । ऋषियों और लोगों की दुर्दशा को देख कर उनकी अनगिनत आँखों से लगातार नौ दिन एवं रात्रि तक आँसू बहते रहे । यह (आँसू ) एक नदी में परिवर्तित हो गए जिससे सूखे का समापन हो गया ।
जगत में कोलाहल मच जाने पर दूत के कहने पर दुर्गम दैत्य स्थिति को समझ गया। उसने अपनी सेना सजायी और अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर वह युद्ध के लिये चल पड़ा। उसके पास एक अक्षोहिणी सेना थी। तदनन्तर देवताओं व महात्माओं को जब असुरों की सेना ने घेर लिया था तब करुणामयी मां ने बचाने के लिए,देवलोक के चारों ओर एक दीवार खड़ी कर दी और स्वयं घेरे से बाहर आकर युद्ध के लिए डट गई तथा दानवों से संसार को मुक्ति दिलाई।
तदनन्तर देवी और दैत्य-दोनों की लड़ाई ठन गयी। धनुष की प्रचण्ड टंकार से दिशाएँ गूँज उठी। भगवती की माया से प्रेरित शक्तियों ने दानवों की बहुत बड़ी सेना नष्ट कर दी। तब सेनाध्यक्ष दुर्गम स्वयं शक्तियों के सामने उपस्थित होकर उनसे युद्ध करने लगा। संसार के ऋषि एवं लोगों को बचाने के लिये, शाकम्बरी देवी ने दैत्य दुर्गम से युद्ध किया।
अब भगवती जगदम्बा और दुर्गम दैत्य इन दोनों में भीषण युद्ध होने लगा।
माँ शाकम्बरी देवी ने अपने शरीर से दस शक्तियाँ उत्पन्न की थी । जिन्होंने युद्ध में देवी शाकम्बरी की सहायता की।
जगदम्बा के पाँच बाण दुर्गम की छाती में जाकर घुस गये। फिर तो रूधिर वमन करता हुआ वह दैत्य भगवती परमेश्वरी के सामने प्राणहीन होकर गिर पड़ा।
माँ शाकम्बरी देवी ने अंततः अपने भाले से दैत्य दुर्गम को मार डाला ।
तब वेदों का ज्ञान और ऋषियों की सभी शक्तियां जो दुर्गम द्वारा शोषित कर ली गई थीं, दानव दुर्गम को मारनेसे सभी शक्तियां सूर्यों के समान चमकदार सुनहरे प्रकाश में परिवर्तित हो गयीं और शाकम्बरी देवी के शरीर में प्रवेश कर गयीं।
देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उस राक्षस से वेदों को त्राण दिलाकर देवताओं को सौंप दिया। वे बोलीं कि मेरे इस उत्तम महात्म्य का निरन्तर पाठ करना चाहिए। मैं उससे प्रसन्न होकर सदैव तुम्हारे समस्त संकट दूर करती रहूँगी।
शाकम्बरी देवी ने सभी वेद और शक्तियां देवताओं को वापस कर दिया। तब माता देवी या ईश्वरी का नाम“दुर्गा” हुआ क्योंकि उन्होंने दानव दुर्गम को मारा था ।
माँ शाकम्भरी देवी मन्दिर
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ऐसी मान्यता है कि माँ शाकम्भरी मानव के कल्याण के लिये धरती पर आयी थी।
मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठों की, नौ देवियों में से एक हैं मां शाकंभरी देवी।
मां शाकंभरी धन-धान्य का आशीर्वाद देती हैं। इनकी अराधना से घर हमेशा शाक यानी अन्न के भंडार से भरा रहता है।
देश भर में मां शाकंभरी के तीन शक्तिपीठ हैं।
पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है और तीसरा स्थान उत्तरप्रदेश के मेरठ के पास सहारनपुर में 40 किलोमीटर की दूर पर स्थित है।

शाकम्भरी नवरात्री पर उपाय
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धन धान्य कि पूर्ती हेतु देवी शाकंभरी कि पंचो-उपचार पूजन करने के बाद देवी के चित्र पर लौकी का भोग लगाएं।
लड़कियों का विवाह जल्दी कराती है यह देवी स्तुति
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देवी दुर्गा की स्तुति केवल शक्ति के लिए नहीं की जाती है। मां दुर्गा पार्वती के रूप में लड़कियों को अच्छा वर भी दिलाती है और विवाह में आ रही बाधा को दूर भी करती है। कहा जाता है कि सीता और रुक्मणि दोनों ने पार्वती का पूजन किया था और इससे ही उन्हें राम और कृष्ण जैसे पति मिले। तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसका उल्लेख भी किया है। सीता ने पार्वती का पूजन किया था,स्तुति की थी। इसके बाद ही उन्हें राम के दर्शन हुए थे। वही स्तुति रामचरितमानस में मिलती है। कई विद्वानों ने इस स्तुति को सिद्ध माना है। अगर कुंवारी लड़की रोजाना नियम से पार्वती पूजन कर इस स्तुति का पाठ करे तो उसे भी मनचाहा वर मिलता है।
स्तुति
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जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
अर्थ – हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमालय की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चंद्रमा की ओर टकटकी लगाकर और छ: मुखवाले स्वामी कार्तिकेयजी की माता! हे जगजननी! हे बिजली की-सी कांतियुत शरीर वाली! आपकी जय हो। आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न,पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं। हे भक्तों को मुंहमांगा वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं। मेरे मनोरथ को आप भली भांति जानती हैं योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं।

शाकम्भरी देवी की आरती
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हरि ॐ श्री शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो
ऐसी अद्भुत रूप हृदय धर लीजो
शताक्षी दयालु की आरती कीजो
तुम परिपूर्ण आदि भवानी मां, सब घट तुम आप बखानी मां
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो
तुम्हीं हो शाकुम्भर, तुम ही हो सताक्षी मां
शिवमूर्ति माया प्रकाशी मां,
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो
नित जो नर-नारी अम्बे आरती गावे मां
इच्छा पूर्ण कीजो, शाकुम्भर दर्शन पावे मां
शाकुम्भरी अम्बाजी की आरती कीजो
जो नर आरती पढ़े पढ़ावे मां, जो नर आरती सुनावे मां
बस बैकुंठ शाकुम्भर दर्शन पावे
शाकुम्भरी अंबाजी की आरती कीजो।