Skip to content

मृत्यु या मुखाग्नि: तेरहवीं की सही गणना का रहस्य

मृत्यु या मुखाग्नि: तेरहवीं की सही गणना का रहस्य, जो हर कोई नहीं जानता!

अक्सर यह प्रश्न उठता है और लोगों में असमंजस रहता है कि तेरहवीं (तेरहवीं संस्कार) की गणना किस दिन से की जानी चाहिए – क्या यह मृत्यु के दिन से होती है, या मुखाग्नि देने वाले दिन से? यह एक सामान्य दुविधा है, खासकर उन परिवारों में जो अपनी परंपराओं को सही ढंग से निभाना चाहते हैं। हिन्दू धर्म के प्राचीन ग्रंथ और उनमें वर्णित सूक्ष्म दार्शनिक सिद्धांत इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर देते हैं, और यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि दिवंगत आत्मा की शांति और परिवार का शुद्धिकरण उचित रीति से हो सके।

हमारे धर्मशास्त्रों, विशेषकर गरुड़ पुराण में वर्णित मृत्यु उपरांत संस्कारों का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि तेरहवीं की गणना सदैव मृत्यु के दिन से ही की जाती है, न कि मुखाग्नि के दिन से। इसके पीछे गहरे आध्यात्मिक और तार्किक कारण निहित हैं, जो हिन्दू धर्म की जीवन और मृत्यु संबंधी अवधारणाओं को दर्शाते हैं।


क्यों मृत्यु का दिन है सर्वोपरि?

यह समझना आवश्यक है कि मृत्यु केवल शरीर के प्राण त्यागने की घटना नहीं है, बल्कि आत्मा (आत्मा) के एक शरीर से दूसरे शरीर या अन्य लोकों में गमन की प्रक्रिया का आरंभ है।

  1. आत्मा की यात्रा का तत्क्षण आरंभ: हिन्दू दर्शन के अनुसार, जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी अंतिम सांस लेता है, आत्मा उसी क्षण शरीर को त्याग देती है और अपनी नई यात्रा आरंभ कर देती है। यह प्रक्रिया मुखाग्नि या किसी अन्य कर्मकांड के लिए रुकती नहीं है। शरीर केवल आत्मा का एक अस्थायी वाहन है। भगवद गीता (अध्याय 2, श्लोक 22) में भगवान कृष्ण कहते हैं: “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।” अर्थात, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है। इस श्लोक से स्पष्ट है कि आत्मा का गमन मृत्यु के क्षण से ही शुरू हो जाता है। मुखाग्नि केवल उस भौतिक शरीर को पंचतत्वों में विलीन करने का एक महत्वपूर्ण संस्कार है, जो आत्मा की यात्रा के आरंभ को प्रभावित नहीं करता।
  2. पिंड दान का सूक्ष्म शरीर से संबंध: मृत्यु के बाद के 10 दिनों तक प्रतिदिन किया जाने वाला पिंड दान एक अत्यंत महत्वपूर्ण अनुष्ठान है। गरुड़ पुराण के अनुसार, ये पिंड दिवंगत आत्मा को यमलोक की यात्रा के लिए एक सूक्ष्म शरीर (आतिवाहिक देह) प्रदान करने में सहायता करते हैं।
    • गरुड़ पुराण में इसका विस्तृत वर्णन मिलता है कि किस प्रकार पहले दिन दिया गया पिंड सिर बनाता है, दूसरे दिन कान, आंखें और नाक, तीसरे दिन गर्दन, कंधे, हाथ और छाती, और इसी क्रम में दसवें दिन तक आत्मा को अपनी सूक्ष्म देह पूर्ण रूप से प्राप्त हो जाती है। यदि गणना मुखाग्नि के दिन से की जाती, तो यह पूरा क्रम बाधित हो जाता और आत्मा को सूक्ष्म शरीर प्राप्त करने में विलंब होता, जिससे उसकी यात्रा में बाधा आ सकती थी।
    • उदाहरण: कल्पना कीजिए, आपके परिवार के किसी वृद्ध सदस्य, जैसे आपके दादाजी, का निधन 10 अप्रैल को रात 9 बजे होता है। किसी कारणवश, श्मशान घाट पर भीड़ होने या रात होने के कारण उनका दाह संस्कार अगले दिन, यानी 11 अप्रैल को सुबह 8 बजे किया जाता है। इस स्थिति में, तेरहवीं की गणना 10 अप्रैल से ही होगी, क्योंकि दादाजी की आत्मा ने शरीर 10 अप्रैल को ही छोड़ा था। 10 अप्रैल पहला दिन होगा, 19 अप्रैल दसवां दिन (दशगात्र), और 22 अप्रैल तेरहवां दिन होगा। यदि गणना 11 अप्रैल (मुखाग्नि) से होती, तो दसवां दिन 20 अप्रैल और तेरहवां दिन 23 अप्रैल होता, जो शास्त्रीय विधान के विपरीत है।
  3. आशौच काल का आरंभ: हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद एक निश्चित अवधि के लिए आशौच (अशुद्धि) मानी जाती है। यह आशौच काल भी मृत्यु के क्षण से ही शुरू होता है, न कि दाह संस्कार के बाद से। इस दौरान परिवार के सदस्य कुछ नियमों का पालन करते हैं, जैसे शुभ कार्यों से बचना, सादा भोजन करना आदि। यदि आशौच मुखाग्नि से शुरू होता, तो यह शास्त्रीय व्यवस्था से मेल नहीं खाता।
  4. परलोक की यात्रा का मार्ग: हिन्दू धर्म में मृत्यु को एक नए लोक की यात्रा का द्वार माना जाता है। आत्मा अपनी कर्मों के अनुसार विभिन्न लोकों से गुजरती है। इस यात्रा के लिए आत्मा को त्वरित रूप से शरीर से मुक्त होना आवश्यक है। मुखाग्नि उस मुक्ति को भौतिक स्तर पर सुनिश्चित करती है, लेकिन आध्यात्मिक यात्रा तो पहले ही शुरू हो चुकी होती है।

विस्तृत उदाहरणों से समझें गणना का महत्व:

आइए कुछ व्यावहारिक उदाहरणों से इस बात को और स्पष्ट करते हैं:

उदाहरण 1: सामान्य स्थिति

  • मृत्यु की तिथि और समय: 5 जुलाई को सुबह 7:00 बजे
  • मुखाग्नि की तिथि और समय: 5 जुलाई को दोपहर 2:00 बजे (उसी दिन)

इस स्थिति में, चूंकि मृत्यु और मुखाग्नि एक ही दिन हुई है, तो गणना में कोई भ्रम नहीं होगा।

  • पहला दिन: 5 जुलाई
  • दसवां दिन (दशगात्र/दशा): 14 जुलाई
  • तेरहवां दिन (तेरहवीं): 17 जुलाई परिवार 17 जुलाई को तेरहवीं का आयोजन करेगा।

उदाहरण 2: मृत्यु और मुखाग्नि अलग-अलग दिन

  • मृत्यु की तिथि और समय: 15 अगस्त को रात 11:00 बजे
  • मुखाग्नि की तिथि और समय: 16 अगस्त को सुबह 9:00 बजे

इस स्थिति में, भले ही मुखाग्नि अगले दिन हुई हो, गणना 15 अगस्त से ही होगी, क्योंकि मृत्यु उसी दिन हुई थी।

  • पहला दिन: 15 अगस्त
  • दसवां दिन (दशगात्र/दशा): 24 अगस्त (15+9 दिन)
  • तेरहवां दिन (तेरहवीं): 27 अगस्त (15+12 दिन) परिवार 27 अगस्त को तेरहवीं का आयोजन करेगा। यदि वे गलती से 16 अगस्त से गणना करते, तो तेरहवीं 28 अगस्त को होती, जो शास्त्रीय दृष्टि से गलत होता।

उदाहरण 3: विदेश में मृत्यु या विषम परिस्थितियाँ

  • मृत्यु की तिथि और समय: 1 दिसंबर को शाम 5:00 बजे (किसी दूरस्थ स्थान या विदेश में)
  • मुखाग्नि की तिथि और समय: मृतक के शरीर को लाने में 2 दिन लगे, और 4 दिसंबर को सुबह 11:00 बजे मुखाग्नि दी गई।

इस जटिल परिस्थिति में भी, गणना मृत्यु के वास्तविक दिन (1 दिसंबर) से ही होगी। भले ही मुखाग्नि में देरी हुई हो, आत्मा का शरीर त्यागना 1 दिसंबर को ही हुआ था।

  • पहला दिन: 1 दिसंबर
  • दसवां दिन (दशगात्र/दशा): 10 दिसंबर
  • तेरहवां दिन (तेरहवीं): 13 दिसंबर परिवार 13 दिसंबर को ही तेरहवीं का आयोजन करेगा। इस प्रकार की स्थितियों में, परिवार को अपने स्थानीय पंडित या धर्मगुरु से सलाह लेनी चाहिए, लेकिन मूल नियम यही रहता है।

दार्शनिक और व्यावहारिक निहितार्थ

तेरहवीं की गणना में यह स्पष्टता केवल एक तकनीकी पहलू नहीं है, बल्कि इसके गहरे दार्शनिक और व्यावहारिक निहितार्थ हैं:

  • आत्मा की त्वरित मुक्ति: सही गणना यह सुनिश्चित करती है कि आत्मा को समय पर पिंड प्राप्त हों और वह अपनी यात्रा बिना किसी विलंब के पूर्ण कर सके। गलत गणना से आत्मा की यात्रा में बाधा आ सकती है, ऐसा माना जाता है।
  • शोक के उचित काल का समापन: तेरहवां दिन शोक के आधिकारिक समापन का प्रतीक है। यदि गणना गलत हो, तो शोक काल की अवधि भी प्रभावित होती है, जिससे परिवार के सदस्यों के भावनात्मक और सामाजिक जीवन पर असर पड़ सकता है।
  • परंपरा का सम्मान: यह सही गणना हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित गहन शास्त्रीय परंपराओं और ज्ञान का सम्मान करती है। यह सुनिश्चित करता है कि अनुष्ठान उसी तरह से किए जाएं जैसा कि धर्मग्रंथों में विधान है।
  • पुण्य की प्राप्ति: सही समय पर सही अनुष्ठान करने से परिवार को पुण्य की प्राप्ति होती है और दिवंगत आत्मा को सद्गति मिलती है।

निष्कर्ष में, हिन्दू धर्म में तेरहवीं संस्कार की गणना को लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार, यह गणना सदैव मृत्यु के दिन से ही होती है, न कि मुखाग्नि के दिन से। यह आत्मा की यात्रा के आरंभ और उसके सूक्ष्म शरीर के निर्माण की प्रक्रिया से जुड़ा एक मूलभूत सिद्धांत है। यह जानना और इसका पालन करना न केवल धार्मिक रूप से सही है, बल्कि यह दिवंगत आत्मा के प्रति हमारे प्रेम, सम्मान और उसके परलोक की शांतिपूर्ण यात्रा सुनिश्चित करने का एक महत्वपूर्ण तरीका भी है। अगली बार जब आप इस विषय पर चर्चा करें या कोई अनुष्ठान करें, तो इस शास्त्रीय ज्ञान को अवश्य ध्यान में रखें और साझा करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *