Skip to content

माघ महात्म्य तृतीय अध्याय

माघ महात्म्य तृतीय अध्याय

〰️〰️🌼〰️🌼〰️🌼〰️〰️

तब राजा दिलीप कहने लगे कि महाराज यह पर्वत कितना ऊँचा और कितना लंबा-चौड़ा है? तब वशिष्ठ जी कहने लगे कि छत्तीस योजन (एक योजन चार कोस का होता है) ऊँचा ऊपर चोटी में दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है. जो हरि, चंदन, आम, मदार, देवदार और अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित है. दुर्भिक्ष से दुखी होकर इस पर्वत को और फल – फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु वहीं रहने लगे और यहाँ पर कंदराओं, वनों और उपवनों में बहुत दिनों तक तप करते रहे।

इस प्रकार जब भृगु ऋषि वहाँ पर अपने आश्रम पर रह रहे थे तो एक विद्याधर अपनी पत्नी सहित उतरा. वे अत्यंत दुखी थे. उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि ने बड़े मीठे स्वर में उनसे कहा कि हे विद्याधर! तुम बड़े दुखी दिखाई देते हो इसका क्या कारण है? तब विद्याधर कहने लगा कि महाराज पुण्य के फल को पाकर, स्वर्ग पाकर तथा देवतुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसा है. मेरे दुख और अशांति का यही एक कारण है. न जाने किस पाप का फल है. मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिए।

मेरी पत्नी अति रुपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में अति प्रवीण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा बजाने वाली जिसने अपने कंठ से गाकर नारदजी को प्रसन्न किया. नाना स्वरों के नाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया. अनेक प्रकार के नाच ताल से शिवजी महाराज भी अति प्रसन्न और रोमांचित हुए. शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है. कहां ऎसी चंद्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र मुख वाला, यही चिंता सदैव मेरे हृदय को जलाती है।

विद्याधर के ऎसे वचन सुनकर तीनों लोकों की भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर कर्म के विचित्र फलों को प्राप्त होकर ज्ञानी पुरुष भी मोह को प्राप्त हो जाते हैं. मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यंत दुखदायी हो जाता है. तुमने माघ मास की एकादशी का व्रत करके द्वादशी न आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए. एकादशी के दिन उपवास करके द्वादशी को तेल लगाने से राजा पुरुरवा ने भी कुरुप शरीर पाया था तब वह अपने कुरुप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमालय पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया।

प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र, शंख, चक्र, गदा, पद्म के धारण करने वाले पीताम्बर पहने, वन माला धारण किए हुए विष्णु का चिंतन करते राजा पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रहकर भगवान का चिंतन किया। इस प्रकार सात जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान, राजा के तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गए और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया. भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुंदर देवताओं का सा रूप दिया जिसको देखकर उर्वशी भी उसको चाहने लगी और राजा कृतकृत्य होकर अपनी पुरी को चला गया।

भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर! इसलिए तुम क्यों दुखी होते हो यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहना मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ में स्नान करो जहाँ पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं। अब मैं इसकी विधि बतलाता हूँ. तुम्हारे भाग्य से माघ मास आज से पाँचवें दिन ही आने वाला है। पौष शुक्ल एकादशी से इस व्रत को आरंभ करो. भूमि पर सोना, जितेंद्रिय रहकर दिन में तीन समय स्नान करके महीना भर निराहार रहो. सब भोगों को त्यागकर तिनों समय भगवान विष्णु का पूजन करो जब तुम द्वादशी को शिवजी स्तोत्र और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख देखकर सभी चकित हो जाएंगे और तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करोगे।

माघ मास के प्रभाव को जानकर सदा माघ में स्नान करो. पाप दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदा यत्न से माघ मास का स्नान करना चाहिए. स्नान करने वाला इस लोक तथा परलोक में सदा सुख पाता है. वशिष्ठ जी कहते हैं कि हे दिलीप! भृगुजी के यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी स्त्री सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया और वह मणिग्रीव पर्वत पर आनंद से रहने लगे. भृगुजी भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गए।

〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *