अन्धीकरोमि भुवनं बधिरीकरोमि
धीरं सचेतनमचेतनतां नयामि।
कृत्यं न पश्यति न येन हितं श्रृणोति
धीमानधीतमपि न प्रतिसंदधाति।।
(प्रबोधचन्द्रोदय)
अर्थात् 👉 मैं (क्रोध) भुवन को अन्धा कर देता हूं, बहिरा कर देता हूं, धीर और सचेतन को भी अचेतन बना देता हूं। जिससे मनुष्य अपना करणीय नहीं देखता, हित की बात नहीं सुनता, बुद्धिमान होकर पड़े हुए को भी स्मरण नहीं कर पाता।
*🌄🌄 प्रभात वंदन 🌄🌄*
कार्तिक माह महात्म्य पच्चीसवां अध्याय
सुना प्रश्न ऋषियों का और बोले सूतजी ज्ञानी।
पच्चीसवें अध्याय में सुनो, श्री हरि की वाणी।।
तीर्थ में दान और व्रत आदि सत्कर्म करने से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं परन्तु तू तो प्रेत के शरीर में है, अत: उन कर्मों को करने की अधिकारिणी नहीं है. इसलिए मैंने जन्म से लेकर अब तक जो कार्तिक का व्रत किया है उसके पुण्य का आधा भाग मैं तुझे देता हूँ, तू उसी से सदगति को प्राप्त हो जा.

इस प्रकार कहकर धर्मदत्त ने द्वादशाक्षर मन्त्र का श्रवण कराते हुए तुलसी मिश्रित जल से ज्यों ही उसका अभिषेक किया त्यों ही वह प्रेत योनि से मुक्त हो प्रज्वलित अग्निशिखा के समान तेजस्विनी एवं दिव्य रूप धारिणी देवी हो गई और सौन्दर्य में लक्ष्मी जी की समानता करने लगी. तदन्तर उसने भूमि पर दण्ड की भाँति गिरकर ब्राह्मण देवता को प्रणाम किया और हर्षित होकर गदगद वाणी में कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! आपके प्रसाद से आज मैं इस नरक से छुटकारा पा गई. मैं तो पाप के समुद्र में डूब रही थी और आप मेरे लिए नौका के समान हो गये.
वह इस प्रकार ब्राह्मण से कह रही थी कि आकाश से एक दिव्य विमान उतरता दिखाई दिया. वह अत्यन्त प्रकाशमान एवं विष्णुरूपधारी पार्षदों से युक्त था. विमान के द्वार पर खड़े हुए पुण्यशील और सुशील ने उस देवी को उठाकर श्रेष्ठ विमान पर चढ़ा लिया तब धर्मदत्त ने बड़े आश्चर्य के साथ उस विमान को देखा और विष्णुरुपधारी पार्षदों को देखकर साष्टांग प्रणाम किया. पुण्यशील और सुशील ने प्रणाम करने वाले ब्राह्मण को उठाया और उसकी सराहना करते हुए कहा – हे द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें साधुवाद है, क्योंकि तुम सदैव भगवान विष्णु के भजन में तत्पर रहते हो, दीनों पर दया करते हो, सर्वज्ञ हो तथा भगवान विष्णु के व्रत का पालन करते हो. तुमने बचपन से लेकर अब तक जो कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उसके आधे भाग का दान देने से तुम्हें दूना पुण्य प्राप्त हुआ है और सैकड़ो जन्मों के पाप नष्ट हो गये हैं. अब यह वैकुण्ठधाम में ले जाई जा रही है. तुम भी इस जन्म के अन्त में अपनी दोनों स्त्रियों के साथ भगवान विष्णु के वैकुण्ठधाम में जाओगे और मुक्ति प्राप्त करोगे.

धर्मदत्त! जिन्होंने तुम्हारे समान भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु की आराधना की है वे धन्य और कृतकृत्य हैं. इस संसार में उन्हीं का जन्म सफल है. भली-भांति आराधना करने पर भगवान विष्णु देहधारी प्राणियों को क्या नहीं देते हैं? उन्होंने ही उत्तानपाद के पुत्र को पूर्वकाल में ध्रुवपद पर स्थापित किया था. उनके नामों का स्मरण करने मात्र से समस्त जीव सदगति को प्राप्त होते हैं. पूर्वकाल में ग्राहग्रस्त गजराज उन्हीं के नामों का स्मरण करने से मुक्त हुआ था. तुमने जन्म से लेकर जो भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करने वाले कार्तिक व्रत का अनुष्ठान किया है, उससे बढ़कर न यज्ञ है, न दान और न ही तीर्थ है. विप्रवर! तुम धन्य हो क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला कार्तिक व्रत किया है, जिसके आधे भाग के फल को पाकर यह स्त्री हमारे साथ भगवान लोक में जा रही है।
क्रमशः…
शेष जारी…
आशा दशमी व्रत का विधान
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युधिष्ठिर ने पूछा- हे गोविन्द ! यह आशादशमी व्रत किस प्रकार और कैसे किया जाता है, आप सर्वज्ञ हैं, आप इसे बतलायें ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले – हे राजन् ! इस व्रत के प्रभाव से राजपुत्र अपना राज्य, कृषक खेती, वणिक् व्यापार में लाभ, पुत्रार्थी पुत्र तथा मानव धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि प्राप्त करते हैं। कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है, ब्राह्मण निर्विघ्न यज्ञ सम्पन्न कर लेता है, रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और पति के चिर- प्रवास हो जाने पर स्त्री उसे शीघ्र ही प्राप्त कर लेती है। शिशु के दन्तजनित पीड़ा में भी इस व्रत से पीड़ा दूर हो जाती है और कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार अन्य कार्यों की सिद्धि के लिये इस आशादशमी व्रत को करना चाहिये। जब भी जिस किसी को कोई कष्ट पड़े, उसकी निवृत्ति के लिये इस व्रत को करना चाहिये।

यह आशादशमी-व्रत किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को किया जाता है। इस दिन प्रातःकाल स्नान करके देवताओं की पूजा कर रात्रि में पुष्प, अलक्त तथा चन्दन आदि से दस आशादेवियों की पूजा करनी चाहिये । घर के आँगन में जौ से अथवा पिष्टातक से पूर्वादि दसों दिशाओं के अधिपतियों की प्रतिमाओं को उनके वाहन तथा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर उन्हें ही ऐन्द्री आदि दिशा-देवियों के रूप में मानकर पूजन करना चाहिये। सबको घृतपूर्ण नैवेद्य, पृथक्-पृथक् दीपक तथा ऋतुफल आदि समर्पित करना चाहिये। इसके अनन्तर अपने कार्य की सिद्धि के लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये
आशाश्चाशाः सदा सन्तु सिद्धयन्तां मे मनोरथाः।
भवतीनां प्रसादेन सदा कल्याणमस्त्विति ॥
‘हे आशादेवियो! मेरी आशाएँ सदा सफल हों, मेरे मनोरथ पूर्ण हों, आपलोगों के अनुग्रह से मेरा सदा कल्याण हो ।’

इस प्रकार विधिवत् पूजा कर ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदानकर प्रसाद ग्रहण करना चाहिये। इसी क्रम से प्रत्येक मास में इस व्रत को करना चाहिये। जबतक अपना मनोरथ पूर्ण न हो जाय, तबतक इस व्रत को करना चाहिये। अनन्तर उद्यापन करना चाहिये। उद्यापन में आशादेवियों की सोने, चाँदी अथवा पिष्टातक से प्रतिमा बनाकर घर के आँगन में उनकी पूजा करके ऐन्द्री, आग्नेयी, याम्या, नैर्ऋति, वारुणि, वायव्या, सौम्या, ऐशानी, अधः तथा ब्राह्मी – इन दस आशादेवियों (दिशा-देवियों) से अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि के लिये प्रार्थना करनी चाहिये, साथ ही नक्षत्रों, ग्रहों, ताराग्रहों, नक्षत्र-मातृकाओं, भूत-प्रेत – विनायकों से भी अभीष्ट सिद्धि के लिये प्रार्थना करनी चाहिये। पुष्प, फल, धूप, गन्ध, वस्त्र आदि से उनकी पूजा करनी चाहिये। सुहागिनी स्त्रियों को नृत्य-गीत आदि के द्वारा रात्रि जागरण करना चाहिये। प्रातः काल विद्वान् ब्राह्मण को सब कुछ पूजित पदार्थ निवेदित कर देना चाहिये और उन्हें प्रणाम कर क्षमा याचना करनी चाहिये। अनन्तर बन्धु-बान्धवों एवं मित्रों के साथ प्रसन्न-मन से भोजन करना चाहिये। हे पार्थ! जो इस आशादशमी-व्रत को श्रद्धापूर्वक करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यह स्त्रियों के लिये विशेष श्रेयस्कर है ।
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