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कार्तिक माह महात्म्य – दूसरा अध्याय  

कार्तिक माह महात्म्य – दूसरा अध्याय  

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सिमर चरण गुरुदेव के, लिखूं शब्द अनूप।

कृपा करें भगवान, सतचितआनन्द स्वरूप।।

भगवान श्रीकृष्ण आगे बोले – हे प्रिये! जब गुणवती को राक्षस द्वारा अपने पति एवं पिता के मारे जाने का समाचार मिला तो वह विलाप करने लगी – हा नाथ! हा पिता! मुझको त्यागकर तुम कहां चले गये? मैं अकेली स्त्री, तुम्हारे बिना अब क्या करूँ? अब मेरे भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था कौन करेगा. घर में प्रेमपूर्वक मेरा पालन-पोषण कौन करेगा? मैं कुछ भी नहीं कर सकती, मुझ विधवा की कौन रक्षा करेगा, मैं कहां जाऊँ? मेरे पास तो अब कोई ठिकाना भी नहीं रहा. इस प्रकार विलाप करते हुए गुणवती चक्कर खाकर धरती पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई.

बहुत देर बाद जब उसे होश आया तो वह पहले की ही भाँति करुण विलाप करते हुए शोक सागर में डूब गई. कुछ समय के पश्चात जब वह संभली तो उसे ध्यान आया कि पिता और पति की मृत्यु के बाद मुझे उनकी क्रिया करनी चाहिए जिससे उनकी गति हो सके इसलिए उसने अपने घर का सारा सामान बेच दिया और उससे प्राप्त धन से उसने अपने पिता एवं पति का श्राद्ध आदि कर्म किया. तत्पश्चात वह उसी नगर में रहते हुए आठों पहर भगवान विष्णु की भक्ति करने लगी. उसने मृत्युपर्यन्त तक नियमपूर्वक सभी एकादशियों का व्रत और कार्तिक महीने में उपवास एवं व्रत किये।

हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं. इनसे मुक्ति,भुक्ति, पुत्र तथा सम्पत्ति प्राप्त होती है. कार्तिक मास में जब तुला राशि पर सूर्य आता है तब ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करने व व्रत व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं क्योंकि यदि उन्होंने पाप भी किये हों तो भी स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है. कार्तिक में स्नान, जागरण, दीपदान तथा तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु के समान है. कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वस्तिक बनाने वाले तथा भगवान विष्णु की पूजा करने वाले मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं।

यह सुनकर गुणवती भी प्रतिवर्ष श्रद्धापूर्वक कार्तिक का व्रत और भगवान विष्णू की पूजा करने लगी. हे प्रिये! एक बार उसे ज्वर हो गया और वह बहुत कमजोर भी हो गई फिर भी वह किसी प्रकार गंगा स्नान के लिए चली गई. गंगा तक तो वह पहुंच गई परन्तु शीत के कारण वह बुरी तरह से कांप रही थी, इस कारण वह शिथिल हो गई तब मेरे(भगवान विष्णु) दूत उसे मेरे धाम में ले आये. तत्पश्चात ब्रह्मा आदि देवताओं की प्रार्थना पर जब मैंने कृष्ण का अवतार लिया तो मेरे गण भी मेरे साथ इस पृथ्वी पर आये जो इस समय यादव हैं. तुम्हारे पिता पूर्वजन्म में देवशर्मा थे तो इस समय सत्राजित हैं. पूर्वजन्म में चन्द्र शर्मा जो तुम्हारा पति था, वह डाकू है और हे देवि! तू ही वह गुणवती है. कार्तिक व्रत के प्रभाव के कारण ही तू मेरी अर्द्धांगिनी हुई है।

पूर्व जन्म में तुमने मेरे मन्दिर के द्वार पर तुलसी का पौधा लगाया था. इस समय वह तेरे महलों के आंगन में कल्पवृक्ष के रुप में विद्यमान है. उस जन्म में जो तुमने दीपदान किया था उसी कारण तुम्हारी देह इतनी सुन्दर है और तुम्हारे घर में साक्षात लक्ष्मी का वास है। चूंकि तुमने पूर्वजन्म में अपने सभी व्रतों का फल पतिस्वरुप विष्णु को अर्पित किया था उसी के प्रभाव से इस जन्म में तुम मेरी प्रिय पत्नी हुई हो पूर्वजन्म में तुमने नियमपूर्वक जो कार्तिक मास का व्रत किया था उसी के कारण मेरा और तुम्हारा कभी वियोग नहीं होगा. इस प्रकार कार्तिक मास में व्रत आदि करने वाले मनुष्य मुझे तुम्हारे समान प्रिय हैं. दूसरे जप तप, यज्ञ, दान आदि करने से प्राप्त फल कार्तिक मास में किये गये व्रत के फल से बहुत थोड़ा होता है अर्थात कार्तिक मास के व्रतों का सोलहवां भाग भी नहीं होता है।

इस प्रकार सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से अपने पूर्वजन्म के पुण्य का प्रभाव सुनकर बहुत प्रसन्न हुई।

कार्तिक माह में धर्मराज जी की कहानी

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किसी गाँव में एक बुढ़िया रहती थी, वह बहुत नियम धर्म से व्रत रखा करती थी. एक दिन भगवान के घर से यमदूत उसे लेने आ गए और वह उनके साथ चल पड़ी. चलते-चलते एक गहरी नदी आई तो यमदूत बोले कि माई! तुमने गोदान की हुई है या नही? बुढ़िया ने उनकी बात सुनकर मन में श्रद्धा से गाय का ध्यान किया तो वह उनके समक्ष आ गई और बुढ़िया उस गाय की पूँछ पकड़कर नदी पार कर गई. वह यमदूतों के साथ फिर आगे बढ़ी तो काले कुत्ते आ गए. यमदूत फिर बोले कुत्तों को खाना दिया था? बुढ़िया ने मन में कुत्तों का ध्यान किया तो वे रास्ते से चले गए.

अब बुढ़िया फिर से आगे बढ़ने लगी तो रास्ते में कौए ने उसके सिर में चोंच मारनी शुरु कर दी तो यमदूत बोले कि ब्राह्मण की बेटी के सिर में तेल लगाया था? बुढ़िया ने ब्राह्मण की बेटी का ध्यान किया तो कौए ने चोंच मारनी बंद कर दी. कुछ आगे बढ़ने पर बुढ़िया के पैर में काँटे चुभने लगे तो यमदूत बोले कि खड़ाऊ आदि दान की है? बुढ़िया ने उनका ध्यान किया तो खड़ाऊ उसके पैरों में आ गई. बुढ़िया फिर आगे बढ़ी तो चित्रगुप्त जी ने यमराज से कहा कि आप किसे लेकर आए हो? यमराज जी बोले कि बुढ़िया ने दान-पुण्य तो बहुत किए हैं लेकिन धर्मराज जी का कुछ नहीं किया इसलिए आगे द्वार इसके लिए बंद हैं.

सारी बात सुनने के बाद बुढ़िया बोली कि आप मुझे सिर्फ सात दिन के लिए वापिस धरती पर भेज दो. मैं धर्मराज जी का व्रत और उद्यापन कर के वापिस आ जाऊँगी. बुढ़िया माई वापिस धरती पर अपने गाँव आ गई और गाँव वालों ने उसे भूतनी समझकर अपने दरवाजे बंद कर दिए. वह जब अपने घर गई तो उसके बहू-बेटे भी दरवाजे बंद कर के बैठ गये. बुढ़िया ने कहा कि मैं भूतनी नहीं हूँ, मैं तो धर्मराज जी की आज्ञा से वापिस धरती पर सात दिन के लिए आई हूँ. इन सातों दिनों में मैं धर्मराज जी का व्रत और उद्यापन करुँगी जिससे मुझे परलोक में जगह मिलेगी.

बुढ़िया की बातों से आश्वस्त होकर बहू-बेटे उसके लिए पूजा की सारी सामग्री एकत्रित करते हैं लेकिन जब बुढ़िया कहानी कहती है तब वह हुंकारा नहीं भरते जिससे बुढ़िया फिर अपनी पड़ोसन को कहानी सुनाती है और वह हुंकारा भरती है. सात दिन की पूजा, व्रत व उद्यापन के बाद धर्मराज जी बुढ़िया को लेने के लिए विमान भेजते हैं. स्वर्ग का विमान देख उसके बहू-बेटों के साथ सारे गाँववाले भी स्वर्ग जाने को तैयार हो गए. बुढ़िया ने कहा कि तुम कहाँ तैयार हो रहे हो? मेरी कहानी तो केवल पड़ोसन ने सुनी है इसलिए वही साथ जाएगी.

सारे गाँववाले बुढ़िया से धर्मराजी की कहानी सुनाने का आग्रह करते हैं तब बुढ़िया उन्हें कहानी सुना देती है. कहानी सुनने के बाद सारे ग्रामवासी विमान में बैठकर स्वर्ग जाते हैं तो धर्मराज जी कहते हैं मैने तो विमान केवल बुढ़िया को लाने भेजा था. बुढ़िया माई कहती है कि हे धर्मराज ! मैने जो भी पुण्य किए हैं उसमें से आधा भाग आप गाँववालों को दे दो. इस तरह से धर्मराज ने ग्रामवासियों को भी स्वर्ग में जगह दे दी.

हे धर्मराज महाराज! जैसे आपने बुढ़िया के साथ सभी गाँववालों को भी स्वर्ग में जगह दी उसी तरह से हमें भी देना. कहानी सुनकर हुंकारा भरने वालों को भी और कहानी कहने वाले को भी जगह देना.

धर्मराज महाराज जी की जय! यमराज महाराज जी की जय!

धर्मराज महाराज जी की जय! यमराज महाराज जी की जय!

ओsम जय जय धर्म धुरन्धर, जय लोकत्राता ।

धर्मराज प्रभु तुम ही, हो हरिहर धाता ।।

जय देव दण्ड पाणिधर यम तुम, पापी जन कारण ।

सुकृति हेतु हो पर तुम, वैतरणी ताराण ।।2।।

न्याय विभाग अध्यक्ष हो, नीयत स्वामी ।

पाप पुण्य के ज्ञाता, तुम अन्तर्यामी ।।3।।

दिव्य दृष्टि से सबके, पाप पुण्य लखते ।

चित्रगुप्त द्वारा तुम, लेखा सब रखते ।।4।।

छात्र पात्र वस्त्रान्न क्षिति, शय्याबानी ।

तब कृपया, पाते हैं, सम्पत्ति मनमानी ।।5।।

द्विज, कन्या, तुलसी का करवाते परिणय ।

वंशवृद्धि तुम उनकी, करते नि:संशय ।।6।।

दानोद्यापन-याजन तुष्ट दयासिन्धु ।

मृत्यु अनन्तर तुम ही, हो केवल बन्धु ।।7।।

धर्मराज प्रभु अब तुम दया ह्रदय धारो ।

जगत सिन्धु से स्वामिन, सेवक को तारो ।।8।।

धर्मराज जी की आरती, जो कोई नर गावे ।

धरणी पर सुख पाके, मनवांछित फल पावे ।।9।।

साधना के पात्र

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एकबार रामकृष्ण परमहंस से एक शिष्य ने पूछा–”गुरुदेव! क्या कारण है कि एक मंत्र, एक ही उपासना प्रक्रिया को अपनाते हुए भी एक व्यक्ति चमत्कारी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, ऋद्धियों, सिद्धियों का स्वामी बन जाता है जबकि दूसरे को कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाता?”

परमहंस ने उत्तर में एक कथा सुनायी जो इस प्रकार थी–

‘‘किसी राज्य के मन्त्री ने अपने जप, तप से विशेष आध्यात्मिक शक्ति अर्जित करली। उसकी चमत्कारी विशेषताओं की सूचना राजा को मिली। राजा ने मन्त्री को बुलाकर रहस्य पूछा तो उसने बताया, यह सब अमुक मन्त्र की उपासना का चमत्कार है। इसकी उपासना, साधना द्वारा सब व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। राजा ने भी मन्त्र और सम्बन्धित विधि-विधान पूछा और उपासना करने लगे।

एक वर्ष तक वे जप करते रहे। पर उन्हें वह उपलब्धियाँ प्राप्त नहीं प्राप्त हो सकीं जो मन्त्री को हुई थीं। निराश होकर एक दिन मन्त्री को बुलाकर कारण पूछा। मन्त्री ने उत्तर देने के बदले राज्य के एक किशोर लड़के को बुलाया और कहा–बेटे! राजा के गाल पर एक चपत लगाओ।

अपनी आज्ञा को मन्त्री ने बार-बार दुहराया, पर बालक अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ। मन्त्री की धृष्टता एवं उद्दण्डता को देखकर राजा का चेहरा तमतमा उठा। उसने लड़के को कड़े स्वर में निर्देश दिया–” इस मन्त्री को दो चपत लगाओ !” लड़के ने तुरन्त दो चपत जड़ दिए। राजा का चेहरा अभी भी क्रोध के आवेश में तमतमा रहा था।

मन्त्री ने नम्रता से उत्तर दिया, “राजन! धृष्टता क्षमा करे। यह सब आपके समाधान के लिए किया गया था। आपके प्रश्न का यही उत्तर है। वाणी से कही बात अधिकारी पात्र की ही मानी जाती है। मन्त्र जप से चमत्कार पात्रता विकसित होने पर ही आता है।”

इस कथा को सुनाने के बाद रामकृष्ण परमहंस ने कहा–”उपासना का–मन्त्र जप का–चमत्कारी प्रतिफल उन्हें ही मिल पाता है जिन्होंने अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परमात्मा के अनुरूप ढाल लिया हैं।

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